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शत्रुजय जाने की इच्छा है - यह कहनेवाला व्यक्ति यदि उस ओर कभी भी कदम ही न बढ़ाये तो क्या वह इच्छा सच्ची कही जायेगी ? कोटा-बूंदी के लोगों के समान भावना नहीं चलती ।
मोक्ष का प्रणिधान अर्थात् मोक्ष के लिए दृढ संकल्प । ऐसा संकल्प करने पर ही प्रवृत्ति आदि आशय आते हैं । द्रव्य क्रियाएँ कारण हैं, कार्य नहीं । कार्य तो हमारे भीतर उत्पन्न होने वाला भाव है, यद कदापि न भूलें ।
* भाव से शिष्य कब बना जाता है ? जब हम अपनी अहंता, अपना सम्पूर्ण व्यक्तित्व गुरु के चरणों में धर दें तब । अहंता के पूर्ण समर्पण के बिना शिष्यत्व प्रकट हो नहीं सकता । हम व्यवहार से शिष्य अवश्य बने हैं, परन्तु 'अहंता' ज्यों की त्यों रखी है । शिष्यत्व के उत्कृष्ट उदाहरण गौतम स्वामी हैं ।
यहां 'हंतूण सव्वमाणं' में 'सर्व' शब्द लिखा है । इसका अर्थ होता है - समस्त प्रकार के मान का त्याग करके ही शिष्यत्व प्राप्त किया जा सकता है ।
सच्चा शिष्य बनता है वही सच्चा गुरु बन सकता है । जो मन-वचन आदि का पूर्ण समर्पण कर सकता है, वही शिष्य बन सकता है । हम मन-वचन आदिसब वैसे ही रखकर शिष्य बनना चाहते हैं । यद्यपि हम स्वयं ही ऐसे हैं ।
प्रश्न - इनमें से क्या कोई सच्चे शिष्य नहीं हैं ?
उत्तर - मैं स्वयं सच्चा शिष्य नहीं बना तो अन्य की क्या बात करूं ? मैंने स्वयं ने अपने गुरु की कितनी सेवा की है ? यह मेरा दृष्टिकोण है । इसे आप नहीं ले सकते ।।
मेरा कोई नहीं माने तो मैं ऐसा सोचता हूं। इस प्रकार विचार करने से मन समता में रमण करता है। अन्य कुछ याद न रहे तो 'सव्वे जीवा कम्मवसा' याद कर लें । 'मेरी बात से सब विनीत हो जायेंगे, आज्ञाकारी बन जायेंगे ।' यदि मेरी यह अपेक्षा हो तो वह अधिक है। सम्भव है - मेरी बात कोई स्वीकार नहीं करेगा । फिर भी मेरा समताभाव अखण्ड रहे वह दृष्टिकोण मुझे अपनाना होगा।
* समपित शिष्य कटु वचनों से अप्रसन्न, क्रोधित नहीं बनता और मधुर वचनों से गर्व नहीं करता । - "मैं ही गुरुजी कहे कलापूर्णसूरि - २wwwwwwwwwwesonamasoma ६३)