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पदवी दीक्षा प्रसंग, आधोई - कच्छ, वि.सं. २०४६, माघ शु.६
२३-३-२०००, गुरुवार
चैत्र व.-३ : खेरवा
* ज्यों ज्यों भगवान के प्रति भक्ति बढ़ती है, शासन के प्रति सम्मान बढ़ता है, त्यों-त्यों वैराग्य सुदृढ होता है । वैराग्य के विना आचारों का पालन करना सम्भव नहीं है । प्रारम्भ में वैराग्य दुःख-गर्भित भी हो सकता है, परन्तु अब वह वैराग्य ज्ञानगर्भित होना चाहिये । अनन्त ज्ञानियों का कथन है कि ऐसा विनय से हो सकता है।
संयम-जीवन में वैराग्य जितना दृढ होता है, संयम-जीवन उतना ही दृढ होता है । विनय से विद्या, विद्या से विवेक, विवेक से वैराग्य, वैराग्य से विरति, विरति से वीतरागता और वीतरागता से विदेह-मुक्ति मिलेगी।
* शिष्य बने बिना जो गुरु बन जाता है, वह गुरु शिष्य की अपेक्षा अधिक अपराधी है।
हमारे परिचित डाक्टर कहते थे - 'डाक्टर के परीक्षण में यदि घालमेल किया जाये तो हानि रोगी की होती है ।'
पहले हम मांडल गये थे तब सुना था कि एक डाक्टर पर तीन लाख रुपयों का मुकदमा बना था । ज्वर (बुखार) में इन्जेक्शन कहे कलापूर्णसूरि - २Womwwwwwwwwwwwwww ५९)