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________________ जहां मिथ्यात्व होता है वहां अहंकार, माया, कपट आदि अनेक दोष होते हैं । * हम औदयिक भाव में जी रहै हैं, उसमें से हमें क्षायोपशमिक भाव में आना है और अन्त में क्षायिकभाव में रूकना * विनीत व्यक्ति विनय के साथ स्वाध्याय भी करे, परन्तु वृद्धों आदि की सेवा की स्वाध्याय के नाम पर उपेक्षा न करे । * पू. पंन्यासश्री महाराज कहते थे कि सागरजी महाराज के पास अन्य समुदाय की साध्वीजीने दीक्षा हेतु उपधि की मांग की । सागरजी महाराज ने उपधि तुरन्त दे दी । उस काल में परोपकार आदि गुण स्वाभाविक थे । हमारा जन्म ही ऐसे समय में हुआ है कि परोपकार बुद्धि कम रहती है, यह सोचकर बैठे नहीं रहना है, परन्तु यह गुण लाने के लिए अत्यन्त ही प्रयत्न करना है। * सहजमल का जोर होगा, तब तक कर्म कम हो जायेंगे तो भी पुनः कर्म बढ़ जायेंगे । 'सहजमल' अर्थात् कर्म-बन्धन की योग्यता । अनेक व्यक्ति ध्यान-शिबिर में जाकर कहते हैं - 'हमारे कर्म घट गये ।' कर्म घट जाये, परन्तु सहजमल यदि नहीं घटे तो क्या लाभ ? भगवान की उपासना के बिना सहजमल नहीं घटता । विनय की वृद्धि न हो, भक्ति उत्पन्न न हो तो समझें कि सहजमल नष्ट हुआ नहीं है । तथाभव्यता की परिपक्वता से सहजमल नष्ट होता है, जो चारों की शरणागति से होता है । शरणागति ही भक्ति है। सद्गुणों की भेंट भगवान के द्वारा ही प्राप्त होती है । यह मैं अपने अनुभव से अधिकार पूर्वक कह सकता हूं। भक्ति के बिना प्राप्त विनय की परीक्षा कैसे होगी ? 'मैं विनयी हूं' ऐसा भाव भी अहंकार-जनित हैं । (५८ 600 0 कहे कलापूर्णसूरि - २)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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