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जिन-जिन गुणों का अभाव प्रतीत हो, उन-उन गुणों का गान करते जाओ ।
* भगवान की अनुपस्थिति में गुरु ही भगवान स्वरूप हैं, यह लगना चाहिये । इसीलिए 'इच्छकारी भगवन् !' आदि में गुरु के लिए 'भगवान' शब्द प्रयुक्त हुआ है । हम उसे पूज्यवाची शब्द मान कर उसकी अवहेलना कर देते हैं, लेकिन हम यह कभी भी नहीं सोचते कि गुरु में भगवद्- बुद्धि जागृत करने के लिए यह है ।
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हमारी उद्दंडता का हमें कदापि विचार नहीं आता । यह तो गुरु ही बता सकते हैं । बडे-बडे डाक्टर भी अपने रोग का उपचार स्वयं नहीं करते, दूसरे डाक्टर से कराते हैं । आज भी मैं आलोचना अन्य आचार्य भगवन् से लेता हूं ।
* आज ध्यान के नाम पर अनेक शिविरों का आयोजन होता है, परन्तु वे सफल तब ही होंगे, जब भगवान केन्द्र स्थान पर होंगे ।
* जिस प्रकार बालक को माता पर विश्वास होता है, उस प्रकार भक्त को भगवान पर विश्वास होता है कि 'भगवान मेरे पास ही हैं । ' * आज भी मैं जब बोलना प्रारम्भ करता हूं तब कोई निश्चित नहीं कि मैं क्या बोलूंगा ? भगवान बुलवाते है वैसा बोलता रहता हूं । ऐसा अनुभव अनेक बार होता है ।
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"प्रभु-पद वलग्या ते रह्या ताजा...
" देशो तो तुमही भलूं..." आदि मेरी प्रिय पंक्तियाँ हैं । ठोठ (भोट) रहना अच्छा, परन्तु भगवान के अलावा अन्य कहीं से मुझे कुछ भी नहीं चाहिये, आज भी मेरा ऐसा अटल विश्वास है ।
* तीन गाव में ऋद्धि गारव सबसे खतरनाक है, क्योंकि वह मिथ्यात्वजनित है, जिसके कारण ऐसी इच्छा होती है कि 'मैं गुरु से भी आगे बढूं ।'
हमें प्राप्त लब्धियों तथा सिद्धियों का प्रयोग अपनी महत्त्वाकांक्षा को सन्तुष्ट करने के लिए करें तो समझ ले कि हृदय की गहराई में मिथ्यात्व हैं ।
कहे कलापूर्णसूरि २
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