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कदाचित् हम धर्मशासन का पूर्ण रूपेण पालन नहीं कर सकें, लेकिन शासन पर बहुमान बना रहे तो भी बड़ी बात है ।
"अवलम्बयेच्छायोगं पूर्णाचारासहिष्णवश्च वयम् । भक्त्या परममुनीनां तदीयपदवीमनुसरामः ॥"
- अध्यात्मसार * शारीरिक सहनशक्ति तो कदाचित् हम प्राप्त कर लें, परन्तु मानसिक सहनशक्ति विकसित करना कठिन है। हमारी निन्दा हो रही हो, उस समय भी हम प्रसन्न रहें । जब स्व-प्रशंसा होती हो तब हम अप्रसन्न हों ऐसी मानसिक स्थिति जब हमारे भीतर प्रकट हो जाये, तब समझें कि अब हमारी मानसिक शक्ति परिपुष्ट हो गई है ।
मुनि प्रत्येक स्थिति को स्वीकार करता है - मान या अपमान, निन्दा या स्तुति, जीवन या मृत्यु । मुनि मृत्यु को भी महोत्सव मानता है ।
एक दिन ऐसा आयेगा ही, जब यह शरीर आदि सब छोड कर चला जाना पड़ेगा ही । यह सब किराये का है, छोड़ना ही पड़ेगा न ? लेकिन उनके प्रति आसक्ति नहीं होगी तो छोड़ते समय तनिक भी दुःख नहीं होगा ।
* 'अपिच्छं सुसंतुटुं' - शिष्य अल्प अभिलाषी तथा सन्तोषी होता है ।
__एक बार सौराष्ट्र में मांगरोल के समीप एक गांव में ३२ कि. मीटर के विहार के पश्चात् केवल आधी गोचरी ही प्राप्त हुई। अत्यन्त ही आनन्द आया । पूज्य कमलविजयजी ने एक परोपकारी व्यक्ति के सहयोग से एक दुकान में स्थिरता करवाई । पूज्य कमलविजयजी वहोरने के लिए गये । सूखी-सूखी रोटियां और छास वहोर कर लाये । उक्त प्रसंग आज भी याद आता है और सहनशीलता तथा सन्तोष के लिए हृदय परितोष का अनुभव करता है ।
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