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यहां जितनी पांजरापोल देखने में आती हैं, उनमें किसी न किसी एक समर्पित व्यक्ति की सेवा होती है । इसके बिना पांजरापोल चल ही नहीं सकती । गृहस्थों में भी दया, दान आदि गुण इतने विकसित होते हैं, तो हममें गुण कैसे होने चाहिये ? * चौदह पूर्व कण्ठस्थ होने आवश्यक नहीं है, एक पदके आलम्बन से भी अनन्त जीवों ने सम्यकत्व प्राप्त किया है । 'उपशम विवेक संवर' इन तीन शब्दों को सुनने से वह चिलातीपुत्र सद्गतिगामी हुआ था ।
* आज शिष्य - शिष्याएं बढ़ रहे हैं, क्योंकि उनकी शर्त आप (गुरु) मान्य करते हैं । आपने दीक्षा के लिए जितना परिश्रम किया है, क्या उन्हें आप सम्यक्त्व प्राप्त कराने के लिए उतना परिश्रम करते हैं ? सम्यक्त्व ही संसार में अत्यन्त दुर्लभ है ।
* मार्गाच्यवन - कर्म - निर्जरार्थ परिषोढव्याः परिषहाः । 'तत्त्वार्थ' में उल्लेख है कि मार्ग से च्युत नहीं होने के लिए तथा कर्म - निर्जरा के लिए परिषह सहन करने हैं ।
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आज तक अनेक कष्ट सहन किये हैं, लेकिन रो-रोकर सहन किये हैं । हंसते-हंसते कदापि कष्ट सहन नहीं किये । यदि हंसतेहंसते कष्ट सहन किये होते तो कर्म समूल नष्ट हो जाते । शिष्य बनने की प्रथम शर्त है सहनशीलता ।
इसके स्थान पर यदि हम उसे सुखशील बनायें तो ? ऐसे सुखशीलों को वयोवृद्ध व्यक्ति 'खसठ' कहते थे । (ख = खाना, स = सोना और ठ = ठल्ले ( स्थंडिल ) जाना ।
व्यापार के बिना व्यापारी को दिन निरर्थक लगता है, उस प्रकार कर्म - निर्जरा रहित दिन साधु को निरर्थक लगता है ।
आप निश्चय मानें कि भगवान के द्वारा प्ररूपित प्रत्येक अनुष्ठान में पुन्य, संवर एवं निर्जरा समाविष्ट ही हैं ।
मोह चाहे कितने ही धमपछाड़ करे, फिर भी धर्मशासन की जय-जयकार ही है और रहेगी । आखिर धर्मशासन लाभ में ही है । प्रति छ: महिनों में एक सिद्ध, प्रति माह एक सर्व विरती, प्रति पक्ष में एक देश विरति और प्रति सप्ताह एक जीव सम्यक्त्व प्राप्त करता ही है । यह धर्मशासन की विजय है ।
५४ कळकळ
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