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यह मानव-भव का द्वार आया है तब विषय कषाय की खाज तो नहीं आ रही है न ?
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* उपशम श्रेणी तक चढ़े हुए चौदह पूर्वी को ऐसी क्या रूकावट आती होगी कि वहां से भी वह निगोद में जा पहुंचे ? पुस्तक, उपकरण आदि में से किसी स्थान के प्रति सूक्ष्म ममत्व रह जाता होगा न ? देखना, हमें तो कहीं ममत्व नहीं है न ?
* 'लहिअट्ठा, गहीअट्ठा, पुच्छिट्ठा' विशेषण श्रावकों के ही नहीं, साध्वियों के भी होते हैं । क्यों होते हैं ? आगमों को श्रवण करके ऐसे बने हुए होते हैं । जब जब अवसर मिलता है तब वे तत्त्वपूर्ण आगमों के पदार्थ सुनते हैं ।
हमारे फलोदी के फूलचन्द, देवचन्द कोचर आदि ऐसे श्रावक थे । बड़े-बड़े आचार्य आते तब कर्म - साहित्य आदि पर रात को बारह बजे तक चर्चा चलती ।
चण्डकौशिक ने भगवान को बुलाने के लिए 'फेक्स' या फोन के द्वारा कदापि निमन्त्रण नहीं दिया था । निमन्त्रण - पत्रिका भी नहीं लिखी थी, वह चाहता भी नहीं था कि भगवान वहां आये, फिर भी भगवान स्वयं उधर गये । भगवान अनिमंत्रित आगन्तुक थे । 'अनाहूत सहाय' भगवान का विशेषण है ।
समता रखे, सहन करे और सहायता करे वह साधु कहलाता है। चण्डकौशिक के इस कथानक से बोध लेकर हमें इस प्रकार (दूसरे के विषय - कषाय दूर करने के प्रयास में) सहायता करनी चाहिये । * आचार्य दीपक तुल्य होते हैं । एक सूर्य में से हजार सूर्य नहीं बनते हैं । एक दीप से हजारों दीप प्रज्वलित हो सकते हैं । केवलज्ञान सूर्य है, परन्तु श्रुतज्ञान दीपक है । यह दूसरों को दिया जा सकता है ।
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आचार्य दूसरों को अपने समान बनाते हैं । हमें यदि पूर्व पुरुष नहीं मिले होते तो क्या हम ऐसे बन जाते ?
आचार्य तो धन्य हैं ही, के भागी है । अस्त होने के दीपक बाद में भी प्रकाश दे आचार्य को दीपक की उपमा दी गई है ।
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आचार्यों की सेवा करने वाले धन्यता पश्चात् सूर्य प्रकाश नहीं दे सकता, सकता है । इसी कारण से यहां
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