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________________ म मनफरा प्रतिष्ठा प्रसंग, वि.सं. २०२३, वै.सु. १० १७-३-२०००, शुक्रवार फाल्गुन शुक्ला-१२ : शंखेश्वर * भूतकाल में कदापि यह जिन-शासन नहीं मिला । मिला भी होगा तो फलीभूत नहीं हुआ, आराधना नहीं की । हमारे साथ रहने वाले अनन्त जीव परम पद पर पहुंच गये, परन्तु हम जहां के तहां रहे, क्योकि हमे विषय-कषाय ही मधुर लगे, प्रिय लगे । हम उनका ही सेवन करते रहे । ___ जब चारों और आग लगी हो । नगर से बाहर निकलने का एक ही द्वार हो, उस समय आदमी किसी को अधिक पूछे बिना बाहर निकलने का प्रयास करता है। उनमें ही एक अन्धा था । उसका हाथ पकड़कर उसे नगर से बाहर कौन ले जाये ? एक सज्जन ने उसे सलाह दी कि मैं आपका हाथ तो नहीं पकड़ सकता, लेकिन आप एक कार्य करें - दीवार को पकड़-पकड़ कर चलते रहें । द्वार आते ही आपको पता लग जायेगा । अन्धा बिचारा अभागा था । उसने वैसा किया तो सही, परन्तु जब द्वार आया तब ही उसने खाज करने के लिए दीवार पर से हाथ हटा लिया और चलता रहा । फलतः द्वार छूट गया । हम उस अन्धे के समान तो नहीं हैं न ? जिन-शासन युक्त (कहे कलापूर्णसूरि - २00s0oooooooooooooo ४९)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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