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हमें यहां सूर्य अस्त होता हुआ प्रतीत होता है, किन्तु ! * सचमुच तो वह कदापि अस्त नहीं होता । यहां अस्त होने वाला सूर्य कहीं अन्यत्र उगता होता है । आचार्य भगवन्त सूर्य के समान भी हैं । वे जहां जाते हैं वहां सतत ज्ञान-प्रकाश बहाते रहते हैं । आचार्य देव को नमस्कार करने से, उनके प्रति भक्ति-राग लाने से इस लोक में कीर्त्ति तथा परलोक में सद्गति प्राप्त होती है । स्वर्ग में भी उनकी प्रशंसा होती है । इन्द्र भी आचार्य भगवान का विनय करते हैं ।
'विरति को प्रणाम करके इन्द्र सभा में बैठते हैं ।
पू.पं. वीरविजयजी शास्त्रों में उल्लेख है कि छट्ट, अट्ठम, मासक्षमण आदि समतापूर्वक करने वाले उग्र तपस्वी एवं घोर (महान्) साधक भी यदि गुरु का विनय नहीं करें तो वे अनन्त संसारी बनते हैं । ऐसा उल्लेख क्यों है ? आचार्य भगवन चाहे छोटे हों, अल्पश्रुत हों या अल्प प्रभावी हों, परन्तु उनकी आज्ञा नहीं मानने से या अविनय करने से ऐसी परम्परा चलती है, अन्य व्यक्ति भी ऐसा ही अविनय सीखते हैं । मिथ्या परम्परा में चलने की अपेक्षा मिथ्या परम्परा प्रवर्तक भारी दोष का भागी होता है ।
'नगुरा नर कोई मत मिलो रे, पापी मिलो हजार;
एक नगरा के ऊपरे रे, लख पापों का भार ।'
ऐसा करने वाला अनन्त संसारी बने तो क्या आश्चर्य है ? आम का वृक्ष फल लगने पर नम्र बनता है, उस प्रकार विनीत भी नम्र होता है, कृतज्ञ होता है, दूसरों के उपकारों को जानने वाला होता है, वह आचार्य की मनोभावना को समझने वाला होता है और वह तदनुसार अनुकूल व्यवहार करने वाला होता है । ऐसे विनीत शिष्य हों वे आचार्य जिन-शासन के प्रभावक बन सकते हैं, वे राज्यसभा में सीना ठोक कर कह सकते हैं कि "नहीं, आपके राजकुमारों की अपेक्षा हमारे जैन साधु अधिक विनयी हैं ।" मैं आज ऐसा नहीं कह सकता । पूज्य कनकसूरिजी जैसा वचनों की आदेयता का मेरा पुन्य नहीं है । मैं कहूंगा और साध्वी वर्ग मेरा मानेंगे ही, ऐसा मुझे पूर्ण विश्वास नहीं है ।
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कहे कलापूर्णसूरि - २
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