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* ३६ x ३६ = १२९६ गुण ही आचार्य में है, ऐसा न मानें । यहां बताया है कि आचार्य में लाखों गुण हैं ।
आचार्य कैसे होते हैं ? १. व्यवहार - मार्ग - उपदेशक । २. श्रुतरत्न के महान् सार्थवाह (बड़े व्यापारी) ३. पृथ्वी के समान सहनशील ।
चाहे जितनी पृथ्वी को खोदें, परन्तु क्या कभी चूं तक करती है ? चाहे जितना बोझ डालो, परन्तु क्या कभी उफ तक करती है ? इसीलिए उसका नाम 'सर्वंसहा' है। आचार्य भी ऐसे ही सहिष्णु होते हैं ।
४. चन्द्रमा के समान सौम्य । ५. समुद्र के समान गम्भीर ।
इसीलिए वे आलोचना प्रदान कर सकते हैं । बारह वर्षों तक प्रतीक्षा करने का कहा गया है, परन्तु अगीतार्थ से आलोचना प्राप्त करने का शास्त्र में निषेध हैं ।
६. दुर्धर्ष - वादी आदि से अपराजेय । ७. कालज्ञः - किस समय क्या करना उसके ज्ञाता । ८. देश, जीवों के भाव, द्रव्य आदि के ज्ञाता ।
आचार्य जान सकते हैं कि कौनसा व्यक्ति किस भाव से बोलता है ? उसके शब्दों से वे उसकी भूमिका जान लेते हैं ।
९. वे शीघ्रता नहीं करते, अधीरता नहीं करते । __ हम सब उतावले हैं, परन्तु आचार्य धैर्यवान होते हैं । आम का वृक्ष भी फलों के लिए समय की अपेक्षा रखता है तो अन्य कार्य वैसे ही कैसे सफल हो सकते हैं ?
१०. अनुवर्तक - वे जानते हैं कि शिष्य को किस प्रकार आगे बढ़ाया जाये ।
हमें ऐसे अनुवर्तक गुण से युक्त पू. कनकसूरिजी, पू. प्रेमसूरिजी, पू.पं. भद्रंकरविजयजी (चाहे आचार्यपद स्वीकार नहीं किया परन्तु उनमें गुण थे) जैसे महापुरुषों के सान्निध्य में रहने का अवसर प्राप्त हुआ है जो हमारा पुन्योदय है ।
११. अमायी (मायारहित) - तनिक भी माया नहीं रखते ।
१२. स्व-पर आगमों के ज्ञाता - प्रत्येक शास्त्र में उनकी बुद्धि कार्य करती है ।
कहे कलापूर्णसूरि - २000000000000oooooo ४७)