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कहलाते हैं, परन्तु नैगमनय तो तीर्थंकर नाम कर्म के निकाचन के समय से ही भगवान मानता है ।
* शकस्तव में भगवान के विशेषण हैं, वे सभी भगवान की भिन्न-भिन्न अचिन्त्य शक्तियों को व्यक्त करते हैं । ये विशेषण हम किसी को दें वैसे केवल कहने के लिए नहीं, वास्तविक हैं ।
'सर्वदेवमयाय, सर्वध्यानमयाय, सर्वतेजोमयाय ।' क्या अद्भुत विशेषण हैं ?
'चतुरशीति लक्ष जीवयोनि प्राणनाथाय' इस विशेषण से समग्र जीवराशि में भगवान दिखाई देंगे। फिर किसी की हिंसा या आशातना करने का मन नहीं होता ।
भगवान यदि इतने व्यापक हों तो उन्हें कैसे भूल सकते हैं ?
भगवान के स्मरण एवं अनुसन्धान से ही अपनी क्रिया अमृत क्रिया बनती है । एक काजा लेने की भी क्रिया करो तब याद करो - यह क्रिया मेरे भगवान द्वारा कथित है तो कैसा भाव आये ?
भगवान को प्रत्येक क्रिया में जोड़ दे तो ही वह क्रिया कर्म क्षय करने वाली बन सकती है ।
हम भले ही भगवान को भूल जाये, परन्तु हमें माता-पिता ही ऐसे मिले हैं कि जो हमें भगवान याद करा दे; जैसे नौकारसी पारनी है, क्या करेंगे ? मुठ्ठी बंध करके नवकार गिनना पडेगा न ? नवकार में भगवान हैं ।
आप चाहे भगवान याद न करें परन्तु व्यवस्था ही ऐसी हुई है कि आपको भगवान याद आयेंगे ही, यदि थोड़ा उपयोग उन क्रियाओं की ओर जाये ।।
* निक्षेप अर्थात् वस्तु का स्वरूप, वस्तु का पर्याय । वस्तु का स्वरूप एवं वस्तु का पर्याय वस्तु से भिन्न होता है ?
अब सुनो, भगवान का नाम भगवान से कैसे भिन्न होगा ? व्याकरण-शास्त्री भी नाम-नामी का अभेद मानते हैं । 'घड़ा लाओ' ऐसा बोलो तो घड़ा ही आयेगा । भगवान का नाम बोलने पर भगवान ही आयेंगे । भगवान की मूर्ति याद करते ही भगवान ही आयेंगे ।
यह घड़ी (हाथ में घड़ी दिखाकर पूज्यश्रीने कहा) और घड़ी कहे कलापूर्णसूरि - २ommonwwwwwwwwwwww ५४१)