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देशविरतिधर भी योग के अधिकारी हैं । इसीलिए भगवान ने आनन्द श्रावक एवं कामदेव श्रावक जैसे श्रावकों की प्रशंसा की है। इससे कोई गौतम स्वामी जैसे अप्रसन्न नहीं होते - हम बड़े बैठे हैं और छोटों की प्रशंसा क्यों ?
* यह चारित्र कोई ऐसे ही मिला होगा? आपने गृहस्थ जीवन में प्रभु की भक्ति की ही होगी । मैं ने स्वयं ने इस चारित्र के लिए कितने ही वर्षों तक भगवान के समक्ष प्रार्थना की है तब ही ये प्रार्थना फली है । संसार हमें कोई वैसे ही छोड़ता है ?
* आज प्रातः पन्ना-रूपा में जाना हुआ । वहां व्याख्यान देना पड़ा । मैंने वहां व्याख्यान में कहा, 'कहीं ये मत मानना कि भगवान अनुपस्थित है। भगवान भले मोक्ष में गये, परन्तु इस समय भी वे जगत् को नाम-स्थापना आदि के द्वारा पवित्र कर रहे हैं।'
* आगमों को आगे रखे अर्थात् भगवान को आगे रखे । भगवान आगे होते हैं वहां मोह डर जाता है । भगवान के भक्तों को मोह कुछ भी नहीं कर सकता ।।
* नाम भगवान ही है। मूर्ति भगवान ही है। कोई अन्तर नहीं है भगवान में और भगवान के नाम-मूर्ति में । यदि अन्तर होता तो समवसरण में तीन दिशाओं में रूप नहीं होते । तीन रूपों को लोग मूर्ति की तरह नहीं, भगवान की तरह ही देखते हैं ।
साक्षात् भगवान विद्यमान हों तब भी भगवान के नाम तथा मूर्ति की आराधना चालु ही होती है । भगवान तो फिर भी बदल जायें, परन्तु शाश्वत प्रतिमा कहां बदलती है ? वह तो सदा के लिए है ही । भगवान आदिनाथ से ही नहीं, अनादिकाल से नाम प्रभु एवं मूर्ति प्रभु की उपासना चालु है ।
जिसने नाम में भगवान देखे, उसने स्थापना में भी भगवान देखे । जिसने स्थापना में भगवान देखे, वह आगमों में भी भगवान देखेगा । प्रमाण दूं क्या ? "नामजिणा जिणनामा, ठवणजिणा पुण जिणिंद पडिमाओ ।" यह गाथा याद है न ? क्या अर्थ होता है ?
एवंभूत नय भले यह माने कि देशना देते भगवान, भगवान (५४० 600mwwwwwwwwwwwwww कहे कलापूर्णसूरि - २