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________________ पढ़ोंगे तो यह बात समझ में आयेगी । "सगुरा है सो भर-भर पीवें, नगुरा जावे प्यासा ।" ___ यह सब पढ़ने से वर्तमान समय में भी आगमों के द्वारा आत्मा का अमृत मिल सकता है - ऐसा विश्वास तो हो सकता है । हमने तो उस ओर देखना ही छोड़ दिया । यह तो घोर कलियुग है । इसमें हमसे क्या हो सकता है ? - ऐसा मान कर हम बैठ गये । * छ'री पालक संघ में (सीधाडा, फागुन शुक्ला-५) प्रारम्भ हुआ ये आगम (चंदाविज्झय पयन्ना) आज पूर्ण होता है । वास्तव में तो तब ही पूर्ण होता है जब वह तदुभय से हमारे जीवन में आये । सूत्र एवं अर्थ से तो ग्रन्थ कदाचित् करते हैं, परन्तु तदुभय से नहीं करते । तदुभय अर्थात् वह वस्तु जीवन में उतारनी । यदि सूत्र अर्थ एवं तदुभय से आगम आत्मसात् न करें तो ज्ञानाचार में अतिचार लगता है । वह जानते हो न...? वणिक् कदापि धनराशि वैसे ही नहीं रख देता । वह निरन्तर उसे फिराता रहता है, तो ही धन बढ़ता है । उस प्रकार ज्ञान भी पढ़कर रख नहीं देना है। उसे पुनरावृत्ति के द्वारा फिरा कर बढ़ाना है और तदनुसार जीवन जीना है । पहले कहां घडियां थी? मुनिगण स्वाध्याय के द्वारा ही समय जान लेते थे । इतनी गाथा कण्ठस्थ कर ली, अतः इतना समय होना ही चाहिये । ऐसा उन्हें ज्ञान था । जिस प्रकार आज हम जानते हैं कि १२-१३ मिनट तक चलो, अतः एक किलोमीटर होना ही चाहिये, चाहे 'माइल-स्टोन' न भी हों । आगमों से ही आत्मध्यान का पता लगेगा । ध्यान के खड्ग से ही मोह-महाभट परास्त हो सकेगा । * ध्यान-क्षेत्र में आगे बढ़ने का मन हो, वे 'ध्यान-विचार' ग्रन्थ अवश्य पढ़ें । * ध्यान के लिए प्राथमिक योग्यता है - प्रभु का प्रेम, प्रभु-भक्ति और प्रभु की आज्ञा का यथा-शक्ति पालन । ___ इसी कारण से ही हरिभद्रसूरिजी ने देशविरति एवं सर्वविरतिधरों को ही योग के सच्चे अधिकारी कहे है । कहे Bhoommonsoonmoonwww ५३९
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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