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पूज्यश्री के अंतिम दर्शन के लिए लोगों की भीड़, वि.सं. २०५८, शंखेश्वर
१६-७-२०००, रविवार आषाढ़ शुक्ला - १५ : पालीताणा
मध्यकाल के साधुओं को प्रतिक्रमण करने की आवश्यकता नहीं रहती, क्योंकि उनका सम्पूर्ण जीवन ही आवश्यकमय होता है । हम रहे वक्र एवं जड़, अतः आवश्यकमय जीवन जीना होने पर भी हम उनसे दूर रहकर जीवन जीते हैं । इसीलिए अपने लिए प्रतिक्रमण अनिवार्य किया ।
दीक्षा ग्रहण की तब सामायिक की प्रतिज्ञा ली थी, परन्तु प्रतिज्ञा लेने मात्र से सामायिक आती नहीं है । इसके लिए निरन्तर अन्य पांच आवश्यकों में परिश्रम करना पडता है ।
इन छः आवश्यकों से ही अपने तीनों धन (ज्ञान - धन, श्रद्धाधन और चारित्र - धन) बढ़ते रहेंगे ।
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* भगवान अप्राप्त गुणों को प्राप्त करानेवाले और प्राप्त गुणों की रक्षा करनेवाले होते हुए भी हममें गुण नहीं आये अथवा नहीं आते; क्योंकि हमने प्रभु से याचना ही नहीं की । 'अहं' को मिटाकर दीन-हीन भाव से कदापि याचना नहीं की । * कोई प्रश्न हल नहीं होता तब पूज्य पं. भद्रंकरविजयजी महाराज आगन्तुकों को कहते 'कोई चिन्ता नहीं, कार्य नहीं होता,
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कहे कलापूर्णसूरि - २