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हमारे समुदाय में पू.पं. मुक्तिविजयजी थे । उन्हों ने 'अभिधान नाममाला' एवं 'प्राकृत व्याकरण' दोनों पर अच्छा नियन्त्रण किया था । अस्सी वर्ष की उम्र में भी नित्य रात्रि में तीन बजे याद करते । लाकड़िया गांव की वृद्धा औरतें पूछती - अब आपको क्या याद करना है ? वे कहते मुझे यह पर-भव में साथ ले जाना
इसे निग्रह कहते हैं । विनय का भी इस प्रकार निग्रह करना है, विनय को आत्मसात् करना है।
मरता है गृहस्थ मरता है - परिवार से व्यवहार से लोभ की मार से । साधु मरता है - अहंकार से सत्कार से मिथ्याचार से ।
(कहे कलापूर्णसूरि - २BBoooooooooooooooo00 ५२७)