SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 546
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ * देव, गुरु एवं धर्म अपनी भक्ति कराने के लिए नहीं है । देव आपको देव और गुरु आपको गुरु बनाना चाहते हैं और धर्म आपको धर्ममय बनाना चाहते है । * आप कहते हैं कि भगवान पर प्रेम करो, परन्तु भगवान हैं कहां ? किस प्रकार प्रेम करें ? कैसे मिलें ? ऐसे प्रश्न आज ही नहीं, पहले भी थे । पू. देवचन्द्रजी महाराज के प्रथम स्तवन में यही फरियाद (शिकायत) है और उसका वहां उत्तर भी है । मेरा विशेष आग्रह है - आनन्दघनजी, यशोविजयजी और देवचन्द्रजी - इन तीन महात्माओं की स्तवन चौबीसी विशेष कण्ठस्थ करें । आपको साधना में अनेक जगह मार्ग-दर्शन मिल जायेगा ।। उन्होंने करुणा करके इन चौबीसियों की रचना करके हम पर उपकार किया तो उनका रहस्य यदि अपने पास आया हो तो दूसरों को दें, दूसरों को सिखायें । मैं समस्त साधु-साध्वीजियों को पूछता हूं कि आप जो सीखे हैं वह दूसरों को (छोटों को) सिखाते हैं ? विनियोग के बिना आपको मिला हुआ गुण आपके साथ नहीं चलेगा । प्रकृति का नियम है कि दोगे तो ही मिलेगा । * समाधि-मरण का यह प्रकरण लगभग पूर्ण होने की तैयारी में है । इस ग्रन्थ में विनय आदि सात द्वार हैं । अषाढ़ कृष्णा-३ से 'ललित विस्तरा' प्रारम्भ होगा । इस 'चंदाविज्झय' में विशेष करके विनय पर बल दिया हैं। विनीत गुणवान शिष्य एवं गुणवान गुरु दोनों का योग अत्यन्त ही दुर्लभ है। * इस संघ के पास सभी कला है, एक ध्यान की कला नहीं है । ध्यान के बिना अनुभव तक नहीं पहुंचा जा सकता । * कई बार व्यक्ति विनय करता है सही, परन्तु अपना मतलब सिद्ध करने के लिए करता है जैसे विनयरत्न । ऐसा विनय यहां अभिप्रेत नहीं है । केवल बातों में विनयी न रहें । उसका निग्रह होना चाहिये । विनय-निग्रह अर्थात् विनय पर नियन्त्रण जो कदापि जाये नहीं । (५२६ &000moon mms कहे कलापूर्णसूरि - २
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy