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का बड़ा उपकार है । फिर मन कह देता है - मेरा काम पड़े तब मुझे बुलायें ।
जब तक अनुभव-ज्ञान नहीं मिले तब तक मन और वचन आवश्यक हैं ।
* प्रभु भी जब बोलते हैं तब नय सापेक्ष बोलते हैं । एक नय को आगे करके दूसरे को गौण करके बोलते हैं । सब एक साथ नहीं बोलते, बोल भी नहीं सकते ।
आप नवपद के वर्णन में देखते हैं न ? जब सम्यग्दर्शन का दिन हो तब मुख्यतया उसका वर्णन होता है । जब सम्यग् ज्ञान होता है तब मुख्यतः उसका वर्णन होता है। इसमें कोई अप्रसन्न नहीं होता । किसी को ऐसा नहीं होता कि मैं छोटा हो गया ।
दो पांवो में ही देखो न, जब दाहिना पांव आगे होता है तब बांया पांव पीछे रहता है । बांया पांव आगे होता है तब दाहिना पांव पीछे रहता है । दोनो में कोई झगडा नहीं होता ।
इसे ही गौण और मुख्य कहते हैं ।
श्रुतज्ञान से भावित बना मन केवलज्ञान से भी बढ़ जाता है, यह कहा है। इसका अर्थ यह है कि ऐसा मन हो तो ही केवलज्ञान प्राप्त होता है ।
* 'चंदाविज्झय' की अब केवल पांच गाथा ही बाकी रही हैं ।
इसमें. विशेष परामर्श दिया है कि चाहे जैसे करके मृत्यु में समाधि बनाये रखनी है । आज, इसी समय मृत्यु आ जाये तो भी तैयार रहना है। इसके लिए निःशल्य बनकर चार की शरणागति स्वीकार करनी है, सभी जीवों के साथ क्षमापना करके एकत्व भावना भानी है ।
"उद्धरिअभावसल्लो सुज्झइ जीवो धुयकिलेसो ।" ॥ १७० ॥
द्रव्यशल्य (लोहे की कील अथवा कांटा आदि) तो हम तुरन्त ही बाहर निकाल देते हैं, परन्तु भावशल्य के लिए कोई विचार ही नहीं आता । यदि भावशल्य भीतर रह गया तो सद्गति नहीं होगी ।
'महानिशीथ' में कहा है - 'तनिक परिवर्तन करके या कोई बहाना बनाकर भी आप प्रायश्चित करोगे तो भी आराधक नहीं बन सकोगे।'
इसके लिए लक्ष्मणा साध्वीजी का दृष्टान्त प्रसिद्ध है । (कहे कलापूर्णसूरि - २Booooooooooooooooooo ५२३)