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आप छेदसूत्रों के ज्ञाता हो तो भी आप स्वयं प्रायश्चित नहीं ले सकोगे, अन्य के पास ही प्रायश्चित लेना होगा ।
परसक्खिआ विसोही, कायव्वा भावसल्लस्स ॥ १७१ ॥
कुशल वैद्य भी अपने रोग का स्वयं उपचार नहीं करता, उस प्रकार साधु भी स्वयं उपचार नहीं करता ।
गुरु तो माता-पिता है। उनके समक्ष कुछ भी बताने में लज्जा कैसी ?
_कोई योद्धा यदि अपना सम्पूर्ण शल्य वीरता के अभिमान से नहीं बताये तो वह शल्य-रहित नहीं बन पायेगा । उस प्रकार अभिमानी व्यक्ति गुरु को पूर्ण रूप से नहीं बताये तो वह शल्यमुक्त बन नहीं सकेगा ।
__ शल्य-रहित मुनि मृत्यु के समय हायतोबा नहीं करता । शल्य नहीं निकाला जाये तो मृत्यु के समय वह कांटे की तरह खटकता है, मन समाधि में नहीं लगता ।
किसी कारणवश यदि आप अपनी बात गुरु को नहीं कह सकते हो तो भगवान को कहें, वनदेवता को कहें, वे सीमंधर स्वामी को पहुंचाये वैसे निवेदन करें । परन्तु मन में रखकर शल्ययुक्त जीवन न जियें ।
शल्ययुक्तता आपको शान्ति नहीं देगी । यदि शल्य रह गया तो सद्गति नहीं होगी । देवगति मिलेगी परन्तु व्यन्तर या भवनपति में जाना पड़ेगा ।
अभी ही 'भगवती' में जमालि प्रकरण में आया कि देव, गुरु, संघ, कुल, गण आदि की आशातना करनेवाला किल्बीषिक देव बनता है।
डोरा-धागा करने वाले साधुओं को आभियोगिक (नौकर) देव बनना पड़ता है।
* अभी मैंने दस माता की बात की थी । गृहस्थों को यदि हम प्रेरणा दें तो हमें कुछ नहीं करना है ?
पू.पं. भद्रंकरविजयजी महाराज ने दूसरों को प्रेरणा दी, उससे पूर्व स्वयं के जीवन में नवकार उतारा (मात्र गिना नहि पर उतारा) भावित बनाया । कितने ही करोड़ नवकार गिने होंगे, यह भगवान (५२४ 086660658000
कहे कलापूर्णसूरि - २)