SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 542
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ संभलकर चलते हुए पूज्यश्री १४-७-२०००, शुक्रवार आषाढ़ शुक्ला - १३ : पालीताणा * जिनागम के प्रत्येक वचन का अध्ययन करें, त्यों त्यों नवीन आध्यात्मिक शक्ति उत्पन्न होगी, जिससे संयम का वीर्य प्रबल बनेगा । संयम-वीर्य ही ज्ञान का कार्य है, फल है । मुक्तिमार्ग में अधिक सहायक ज्ञान है कितना ? । श्रुतज्ञान का मूल्य कल मैंने बात कही थी कि केवलज्ञान से भी मन बढ़कर है । इसका अर्थ यह न लगायें कि केवलज्ञान छोटा और मन बड़ा । स्याद्वाद दर्शन में सब बात सापेक्ष होती है । जिस समय जिस की मुख्यता हो, उसे आगे किया जाता है । यहां अपेक्षा से श्रुतज्ञान मूल्यवान है । वह आदान-प्रदान हो सके उस अपेक्षा से है । यह ज्ञान भी सफल तब ही बनता है यदि संयम - वीर्य प्रकट हो । हमारे तीनों योगों में वीर्य शक्ति सम्मिलित हो जाये तो ही वह फलदायी बनती है । मन आपको अनुभव - ज्ञान तक पहुंचा दे, फिर स्वयं हट जाये और आपको अनुभव के समुद्र में धकेल दे, यही मन ८८ कहे कलापूर्णसूरि २ ५२२
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy