SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 535
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ इस प्रकार प्रत्येक जन्म में हमने अन्य जीवों को बहुत दुःखी किये हैं। वास्तव में तो सुखी करने चाहिये क्योंकि प्रत्येक जीवका हम पर उपकार है । उस उपकार का ऋण चुकाने के बदले हम अपकार करते रहें ये कैसा ? संसार में रहेंगे तब तक पर-पीड़न अवश्य है । मोक्ष में जाने के बाद ही सर्वथा पर-पीड़न बन्द होता है । ___ जितना मोक्ष में विलम्ब उतना अन्य जीवों को अधिक त्रास ! निगोद के अनन्त जीव राह देख कर बैठे हैं - स्थान खाली करो । आपके स्थान पर आकर साधना करके हमें मोक्ष में जाना है। __ हम मोक्ष में जायेंगे तो ही कोई निगोद में से बाहर निकलेगा । जब तक मोक्ष प्राप्त न हो, तब तक जीवन परोपकार-परायण रहना चाहिये । परोपकार ही सच्चे अर्थ में स्वोपकार है । स्वोपकार (स्वार्थ) करनेवाला सच्चे अर्थ में स्वोपकार भी कर ही नहीं सकता । स्वोपकारी (स्वार्थी) सचमुच तो स्व-अपकारी ही है । हमें जीवित रखने के लिए वायु, जल आदि के - असंख्य जीव अपना निरन्तर बलिदान देते रहते हैं । यदि यह विचार दृष्टिगत रखें तो आवश्यकता से अधिक जल आदि प्रयुक्त करने की कदापि इच्छा नहीं होगी। * राजा के ज्योतिषी को भविष्य पूछने पर उत्तर मिला कि इस वर्ष भयंकर अकाल पड़नेवाला है । राजा आदि स्तब्ध रह गये । सेठ लोगों ने तुरन्त अनाज आदि संग्रह करना प्रारम्भ किया, परन्तु अषाढ़ महिना आते ही मूसलधार वर्षा हो गई । अकाल की बात मिथ्या हुई । ज्योतिषी को पूछने पर वह बोला, 'ग्रहों के आधार पर अब भी मैं कहता हूं कि अकाल ही पड़ेगा, परन्तु वर्षा क्यों हुई ? मुझे भी यह समझ में नहीं आता । किसी ज्ञानी को पूछे तो पता लगे । केवलज्ञानी को पूछने पर वे बोले - 'ज्योतिषी अपने ज्ञान के अनुसार गलत नहीं है, परन्तु ज्योतिष से धर्म का प्रभाव अत्यन्त ही उच्च है, जो ज्ञानी के अतिरिक्त कोई समझ नहीं सकता । (कहे कलापूर्णसूरि - २000000000000000RRs ५१५)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy