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भ्रष्ट जीव होगा ।
और उन मुनिवर ने उसके योग्य तीन शब्द उसे दिये ।
ये शब्द सुनते ही चिलातीपुत्र चिन्तन में डूब गया । - ये जैन महात्मा कदापि असत्य तो नहीं ही कहेंगे । निश्चय ही इन्हों ने मेरे योग्य ही शब्द दिये हैं। मुझे इन पर चिन्तन करना चाहिये । तीन शब्दों के चिन्तन से तो उसके जीवन में आमूल-चूल परिवर्तन हो गया ।
* अग्नि में शीतलता मिले तो गृहस्थ-जीवन में शान्ति मिले । राग-द्वेषमय गृहस्थ-जीवन में शान्ति मिलने की बात ही वृथा है ।
सम्यग्दृष्टि जीव संसार में रहता अवश्य है, परन्तु उसके मन में संसार नहीं होता । तप्त लोहे के गोले पर पांव रखने पड़े तो मनुष्य कैसे रखे ? उस प्रकार सम्यग्दृष्टि संसार की प्रवृत्तियां करता होता है।
भरत चक्रवर्ती सम्यग्दृष्टि थे । वे संसार में रहे परन्तु उनके मन में संसार नहीं था ।
"भरतजी मन में ही वैरागी" । __ पूर्व जन्म में भरतजी बाहु नामक साधु थे । उन्हों ने ५०० साधुओं की उग्र सेवा की थी । उसके प्रभाव से इस जन्म में अनासक्ति पूर्वक की चक्रवर्ती की ऋद्धि प्राप्त हुई थी । योंही इन्हें आरीसा भुवन में केवलज्ञान नहीं मिला था ।
* हण्टर देह पर लगता है परन्तु वेदना आत्मा को होती है क्योंकि जीमने में जगला, मार खाने में भगला !
देह के पीछे पागल बने हम आत्मा का कोई विचार नहीं करते । "तुमंसि नाम सच्चेव जं हंतव्वंति मनसि"
- आचारांग... "जिसको तू मारता है वह तू ही है।" दूसरों की मृत्यु करनेवाला सचमुच तो अपनी ही भावी मृत्यु तैयार करता है । एक भी जीव की आपके द्वारा मृत्यु हुई जिससे कम से कम आपकी दस मृत्यु निश्चित हुई। (५१४000000000 कहे कलापूर्णसूरि - २)