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पांचों परमेष्ठियों को गुणों के भंडार होने के कारण ही नमस्कार किये गये हैं । अरिहंत सिद्ध क्षायिक गुणों के भण्डार हैं । अन्य तीन को क्षायिक गुण मिलनेवाले हैं । खिचडी चूल्हे पर चढ़ गई है, पक जाने की तैयारी में है ।
अधिक कहूं तो आचार्य, उपाध्याय अथवा साधु में भी भगवान ही हैं ।
पांचो परमेष्ठियों का समावेश एक अरिहंत में होता है । इसीलिए एक साधु की आशातना अरिहंत की आशातना है । एक जीव की आशातना अरिहंत की आशातना है ।
प्रश्न आशातना बड़ों की होती है । छोटों की आशातना
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किस तरह ?
उत्तर
बड़ों को भक्ति भावपूर्वक नहीं देखना आशातना है । छोटें को वात्सल्य नहीं बताना भी आशातना है । ऐसा नहीं होता
तो
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" सव्वप्पाणभूअजीव सत्ताणं आसायणाए ।" नहीं लिखा होता ... 'लोकोत्तमो निष्प्रतिमस्त्वमेव, त्वं शाश्वतं मंगलमप्यधीश । त्वामेकमर्हन् शरणं प्रपद्ये, सिद्धर्षिसद्धर्ममयस्त्वमेव ॥ '
शक्रस्तव
इस श्लोक के अर्थ के रहस्य में अरिहंत में अन्य तीनों मंगल छिपे हैं । ("सिद्धर्षिसद्धर्ममयस्त्वमेव" सिद्ध + ऋषि + सद्धर्म) ऋषि अर्थात् मुनि ।
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मात्र क्षयोपशम भाव के गुणों से नहीं चलता, उसका अनुबंध चाहिये । तो ही वे गुण स्थायी बनेंगे । सानुबंध गुणों में अमृत तुल्य आस्वादन मिलता है । ऐसे गुण विषयों से विमुख करते हैं और शासन के सम्मुख लाते हैं ।
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* छोटी-बडी कोई भी वस्तु लेते समय पुंजने की इच्छा होती है ? मुझे तो तुरन्त याद आ जाता है ।
सोते समय संकल्प करें कि बीस मिनट से अधिक नहीं सोना है । आप देखें । बीस मिनटों में ही नींद उड़ जायेगी । मध्यान्ह में बराबर २० मिनट होती हैं और में जग जाता हूं ।
किसी भी गुण के लिए ऐसा संकल्प चाहिये । (कहे कलापूर्णसूरि २
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