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शब्द में इच्छा, शास्त्र एवं सामर्थ्य - तीनों योग आ जाते हैं । 'नमो' को आप साधारण न माने ।
नवकार को चौदह पूर्व का सार वैसे ही नहीं कहा । नवकार का दूसरा नाम भी कितना उत्तम है - "श्री पंच मंगल महाश्रुतस्कंध ।" अन्य सब श्रुतस्कंध परन्तु यह है महाश्रुतस्कंध ।
नवकार का यह नाम 'महानिशीथ' में मिलता है। 'महानिशीथ' के अन्त में लिखा है कि "बहुत साहित्य नष्ट हो गया । आज तो जो दीमक द्वारा खाये हुए पत्ते मिले हैं उनका संयोजन करके जमाया गया है।
मध्यकाल में मुसलमानों ने अनेक ग्रन्थ जला दिये और मूर्ति तोड़ डाली । अंग्रेजों ने प्रलोभन देकर बहुत सारा साहित्य ले लिया, अन्यथा तो यहां न मिले और वहां मिले, यह कैसे होता ?
* 'पंचवस्तुक' में 'स्तवपरिज्ञा' ग्रन्थ हरिभद्रसूरिजी ने रख दिया । आचार्य-पदवी के समय अपूर्वश्रुत देना तो कौन सा अपूर्वश्रुत ? उस स्थान पर 'स्तवपरिज्ञा' रखा गया है ।
* वि. संवत् २०३१ में प्रारम्भ में पू.पं. भद्रंकरविजयजी म. बोलते और मैं लिखता, परन्तु मुझे रास न आने के कारण मैंने मात्र सुनना और उनका जीवन देखना प्रारम्भ किया । व्याख्यान के समय उनके पदार्थ दृष्टि के समक्ष रखकर बोलता था । धीरे धीरे रास आ गया ।
गुरुकुल-वास को क्यों इतना महत्त्व दिया ? क्योंकि गुरुजनों को देखकर ही ये सब गुण सीखे जाते हैं । गुरु आदि के गुण देखते-देखते वे गुण हमारे भीतर संक्रान्त होते हैं । गुरुकुल-वास का यही रहस्य है।
दोषों का संक्रमण भी इसी प्रकार से होता है । कुसंगति से दोषों का संक्रमण होता है ।
दोषों का संक्रमण शीघ्र होता है, गुणों का नहीं । पानी को ऊपर चढ़ाना हो तो परिश्रम करना पडता है, परन्तु नीचे ले जाना हो तो ? अनाज के लिए परिश्रम करना पडता है, परन्तु घास के लिए? बगीचा बनाने के लिए श्रम करना पडता है परन्तु 'धूरा' (उकरड़ा) बनाना हो तो ? (५१०00mmonomoooooooom® कहे कलापूर्णसूरि - २)