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करता है, कभी भगवान के समक्ष कोई समस्या प्रस्तुत करता है, कभी "भगवान से भी मैं बड़ा हूं" ऐसी विचित्र उक्ति भी करता है । भक्ति को सब स्वतन्त्रता है ।
परन्तु ऐसा करने की इच्छा कब होती है ? जब भीतर प्रभु की अदम्य उत्कण्ठा उत्पन्न हो तब ।
इस समय अपनी क्या क्या उत्कण्ठाएं हैं ? संसार की सभी उत्कण्ठाएं हृदय में भरी हुई हैं । एक मात्र प्रभु की उत्कण्ठा को छोड़कर । अदम्य उत्कण्ठा के बिना प्रभु कैसे रीझेंगे ?
__ पानी में डुबकी लगा कर व्यक्ति बाहर निकलने के लिए छटपटाता है अथवा पानी से बाहर पड़ी मछली पानी के लिए तड़पती है, वैसी छटपटाहट, तड़पन हमारे हृदय में उत्पन्न होनी चाहिये ।
प्रभु-दर्शन का चिन्ह क्या है ? आनन्द की लहर.... __ वर्षा बरसने के पश्चात् जैसे शीतल पवन की लहर आती है, उस प्रकार प्रभु की करुणा का स्पर्श होते ही भक्त के हृदय में प्रसन्नता एवं आनन्द की लहर उठती है। "करुणा दृष्टि कीधी रे, सेवक ऊपरे ।"
- पू. मोहनविजयजी यह पंक्ति प्रभु की बरसी हुई करुणा से होती प्रसन्नता को व्यक्त करती है ।
परन्तु प्रभु की करुणा-वृष्टि कब होती है ? जब हृदय में प्रभु की प्रीति प्रकट हो तब । इसीलिए लिखा है -
"प्रीतलडी बंधाणी रे अजित जिणंद शुं" __ क्या प्रभु के साथ प्रीति हुई है ? प्रभु के साथ प्रीति हो, हुई हो तो प्रगाढ़ बने, इसीलिए ही यह स्तवन मैं बार बार बोलता हूं, दिन में चार बार बोलता हूं ।
* अध्यात्म की, भक्ति की अनेक बातें पू. देवचन्द्रजी म.सा. करते थे, परन्तु सुने कौन ? उस समय भी (ढाई सौ वर्ष पूर्व) अध्यात्म रुचिवाले जीव बहुत कम थे ।।
देखें, उनके ही उद्गार - "द्रव्य क्रिया रुचि जीवडा रे, भाव धर्म-रुचि हीन;
उपदेशक पण तेहवा रे, शुं करे लोक नवीन ?" ५००nommomoooooooooooo कहे कलापूर्णसूरि - २