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लिए भक्ति उत्पन्न नहीं होती । भक्ति नहीं जागने से धर्म में प्राण नहीं आता, चेहरे पर प्रसन्नता की लालिमा नहीं आती। अपना धर्म सूखा-सूखा लगता है।
हमें ही नहीं, कई बार बड़े विद्वानों को भी भगवान की करुणा समझ में नहीं आई, सिद्धर्षि जैसे विद्वान को भी समझ में नहीं आई थी । इसीलिए वे बौद्ध दर्शन के प्रति आकर्षित हुए थे । बुद्ध महान् कारुणिक दिखाई दिये, अरिहंत मात्र वीतराग ही दिखाई दिये ।
यह तो भला हो 'ललित विस्तरा' का कि जिसके योग से उन्हें भगवान की परम कारुणिकता समझ में आई और वे जैनदर्शन में स्थिर हुए ।
भला हो पूज्य पं. भद्रंकरविजयजी महाराज का कि जिन्हों ने हमें इन 'ललित विस्तरा' आदि ग्रन्थों के द्वारा भगवान की करुणा समझाई, अन्यथा, पता नहीं हम कहां होते ?
करुणा-सिन्धु प्रभु की करुणा निरन्तर नजर के समक्ष रखोगे तो आपके हृदय में भक्ति की लहर उठे बिना नहीं रहेगी, सचमुच यदि भीतर 'हृदय' नामक वस्तु होगी तो । पत्थर में तरंगे उत्पन्न नहीं होती, परन्तु पानी में तरंगे उत्पन्न न हो, यह कैसे होगा ? हमारा हृदय पत्थर है या पानी ?
पानी के समान मृदु हृदय में ही भक्ति का जन्म होगा । भक्ति का जन्म होगा तो ही धर्म प्राणवान बनेगा ।
जब तक प्रभु के दर्शन न हों तब तक चैन से न बैठें । प्रभु को पुकारते ही रहें, प्रार्थना करते ही रहें ।
ये दयालु प्रभु आपको निश्चित रूप से दर्शन देंगे ।
यहां से नहीं मिलेंगे तो कहां से मिलेंगे ? यहां से नहीं मिले तो कहीं से भी नहीं मिलेंगे । अनन्य भाव से शरणागति करें । भक्ति में सातत्य रखें, फिर फल देखें । अपनी कमजोरी यह है कि सातत्य नहीं होता । सातत्य के बिना कोई भी अनुष्ठान सफल नहीं होता ।
* भक्त को प्रभु के समक्ष सब प्रकार से प्रार्थना करने की स्वतंत्रता है। माता के समक्ष बालक चाहे जैसे चोचले करता ही है न ? भक्त कभी उपालम्भ देता है, कभी अपनी व्यथा व्यक्त (कहे कलापूर्णसूरि - २wwwwwwwwwwwwwwwwmom ४९९)