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ही है। केवल क्रोध की ही बात नहीं है, अनन्तानुबंधी चारों कषायों का नाश करना है।
अभिमान के कारण क्रोध आता है। अतः क्रोध के पश्चात् मान । भीतर खाली होते हुए भी मान-प्रतिष्ठा की आवश्यकता हो तो माया-प्रपंच करके मिथ्या छवि खड़ी करनी पड़ती है, अतः तीसरा कषाय माया है । माया करके मनुष्य धन-संग्रह करता रहता है, लोभ बढ़ाता रहता है । अतः चौथा कषाय है लोभ ।
अनन्तानुबंधी कषायों के क्षय अथवा उपशम के बिना मिथ्यात्व नष्ट नहीं होता । मिथ्यात्व नष्ट हुए बिना सम्यग्दर्शन नहीं आता । सम्यग्दर्शन के बिना सच्चा जैनत्व नहीं आता ।
अनन्तानुबंधी कषाय रहेंगे तो अन्त समय में समाधि नहीं रहेगी ।
* शरीर का परिवार, शरीर का भोजन याद आता है, परन्तु आत्मा का कुछ याद नहीं आता ।
शरीर को भोजन नहीं मिले तो चिन्ता होती है। आत्मा को भोजन नहीं मिले तो क्या उसकी चिन्ता होती है ? __क्या आप यह समझते हैं कि भगवान की भक्ति, गुरु की सेवा, शास्त्र का स्वाध्याय इत्यादि आत्मा का भोजन है ?
पूर्व पुन्य के योग से इतनी और ऐसी सामग्री मिलने पर भी हम उदासीन रहें तो वह हमारी सबसे बड़ी करुणा गिनी जायेगी।
इतने अधिक दोष सेवन करके आप सबको यहां पालीताणा में क्यों रखा गया है ? ऐसा ही जीवन जीने के लिए आपकों यहां रखा गया है कि कुछ परिवर्तन लाने के लिए ?
* 'ज्ञानसार' का रहस्य लोग बराबर नहीं समझ सकेंगे यह समझकर उपा. यशोविजयजी ने स्वयं उस पर गुजराती टबा लिखा है । छोटा सा टबा भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है ।
खरतरगच्छीय पू. देवचन्द्रजी ने उस पर 'ज्ञानमंजरी' नामक टीका लिखी । यहां कोई गच्छ का भेदभाव नहीं है । उन्होंने यशोविजयजी को भगवान के रूप में सम्बोधित किया है । यह सच्चा गुणानुराग है।
* लगभग डेढ़ वर्ष का बालक अचानक खड्डे में गिर गया । वहां पड़े सांप को रस्सी समझ कर वह पकड़ने गया । इतने में (४९२ 000000000000000000006 कहे कलापूर्णसूरि - २)