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________________ नित्य बन्धन चालु ही है। कितनेक कर्म तो ऐसे होते हैं जो उदय में आकर क्षीण तो होते हैं, परन्तु सर्वथा जाते नहीं है । वे अपना स्थान अपने सजातीय कर्मों को देते जाते हैं । जैसे क्रोध मोहनीय कर्म के उदय से क्रोध आया तो क्या हुआ ? क्रोध मोहनीय कर्म की निर्जरा हुई वैसे उसका बन्ध भी हुआ । * हमारा उपदेश, हमारी प्रेरणा कर्मों में से आपको मुक्त करने के लिए ही होती है। हम आपको वासक्षेप किस भाव से डालते हैं ? आप चाहे दुकान, आरोग्य आदि के हजार प्रश्न लेकर वासक्षेप डलवाने आते हो, परन्तु हम क्या बोलते हैं ? नित्थारपारगा होह । कर्मों का क्षय करके आप संसार से पार उतरें । * अब इतना निश्चय करो कि पुराने कर्मों का मुझे क्षय करना है और नये कर्म बांधने नहीं हैं । कदाचित् यह सम्भव न हो तो कर्मों के अनुबन्ध तो चालु रहने देना ही नहीं है । कर्मों के अनुबन्ध टूट जायें तो भी काफी काम हो जाये । * कर्मों का कानून कठोर है । त्रिपृष्ठ वासुदेव के भव में बंधे हुए कर्म ठेठ भगवान महावीर के भव में उदय में आ सकते हों. कर्म भगवान को भी नहीं छोड़ते हों तो हम कौन हैं ? कर्म का कानून बदला नहीं जा सकता, परन्तु कर्म में से मुक्त हुआ जा सकता है। कर्मों से मुक्त होने के लिए देव-गुरुधर्म की शरण में जाना पड़ेगा । कर्म-साहित्य का अध्ययन केवल कर्म प्रकृतियों को गिनने के लिए नहीं है, विद्वत्ता बताने के लिए नहीं है, परन्तु उन कर्मों का नाश करने के लिए है । यह बात विशेष तौर पर ध्यान में रखें । * जब तक तीव्र कषाय का क्षय अथवा उपशम न हो तब तक भीतर विद्यमान परम सत्ता की झलक नहीं दिखेगी । जिम निर्मलता रे रतन स्फटिक तणी, तिम ए जीव स्वभाव; ते जिन वीरे रे धर्म प्रकाशियो, प्रबल कषाय अभाव ।" ___ - उपा. यशोविजयजी म. - १२५ गाथाओं का स्तवन प्रबल कषाय अर्थात् अनन्तानुबंधी कषाय । संवत्सरी का प्रतिक्रमण अनन्तानुबंधी कषाय के नाश के लिए (कहे कलापूर्णसूरि - २ &000000000000000000000 ४९१)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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