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ही भगवान के प्रति प्रेम होने लगता है। स्वाति नक्षत्र हो, सीप का मुंह खुला हो और वर्षा की एक बूंद गिरे और कैसा मोती बन जाता है ?
अनन्तानुबंधी कषाय पड़े हो तब तक मन में निर्मलता नहीं आती । निर्मल नहीं बने मन में प्रभु प्रतिबिम्बित नहीं होते ।
* प्रभु के प्रेम में लीन बना व्यक्ति सदा निर्भय होता है। भगवान अभय हैं और अभय के दाता भी हैं। भक्ति करनेवाला भक्त कदापि भयभीत नहीं होता । जब तक भय हो तब तक समझें कि अभी तक भक्ति जमी नहीं है।
सम्पूर्ण उज्जैन नगरी भयभीत थी तब मयणा अकेली निर्भय थी । उसने सास को कह दिया, 'भगवान की भक्ति के प्रभाव से मैं कह सकती हूं कि आज आपके पुत्र (श्रीपाल) आने ही चाहिये ।'
मयणा की बात सचमुच सत्य हुई । भगवान की भक्ति के द्वारा मिलती निर्भयता का यह उत्कृष्ट नमूना है ।
* अनन्तानुबंधी कषाय सम्यग्दर्शन नहीं आने देते । अनन्तानुबंधी कषायों के साथ नियमा मिथ्यात्व होता है । जब तक मिथ्यात्व हो तब तक देहाध्यास दूर नहीं होता । देह में ही आत्मा के दर्शन होते हैं । मिथ्यात्व देव-गुरु में विश्वास करने नहीं देता । धन्वन्तरी जैसे वैद्य सामने हों, देह में दर्द भी हो, परन्तु रोगी वैद्य की बात मानने के लिए तैयार ही नहीं हो तो क्या करें ? मिथ्यात्वी की ऐसी दशा होती है ।
मारवाड़ प्रदेश में खुजली का एक रोगी जा रहा था । सामने से एक वैद्य जड़ीबूटियों का भारा उठाकर आ रहा था ।
रोगी ने कहा, "मुझे घास की सली दो ।" वैद्य - सली का क्या काम है ? "मुझे खाज करने के लिए चाहिये ।"
"इसके बजाय यह पुड़िया ले । तेरी खाज मिट जायेगी । सली की आवश्यकता ही नहीं पडेगी ।"
"नहीं, खाज मिट जायेगी तो खाज करने का आनन्द कैसे प्राप्त कर सकूँगा ? अतः पुड़िया नहीं, सली चाहिये ।" । (४८८ 2009 Www sa
s s कहे कलापूर्णसूरि - २)