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________________ अवश्य प्रयत्न करेगा । साहुकार को उसकी साख पर विश्वास करके ही ऋण दिया जाता है । द्रव्य दीक्षा को आप कम लाभदायक न मानें । गोविन्द नामक पण्डित ने जैन-दर्शन को पराजित करने के लिए ही दीक्षा अंगीकार की थी, परन्तु यहां आने के पश्चात् उनका हृदय परिवर्तित हो गया और द्रव्य-दीक्षा भाव-दीक्षा में बदल गई । छठा-सातवां गुण-स्थानक मिले या न मिले, परन्तु चौथा गुणस्थानक सम्यग्दर्शन मिल जाये तो भी साधु-जीवन सफल बना मानें । सम्यग्दर्शन के लिए आनन्दघनजी के समान तड़प चाहिये । "दरिसण दरिसण रटतो जो फिरूं, तो रण-रोझ समान..." नारदीय भक्तिसूत्र में कहा है - "तस्मिन् (परमात्मनि) प्रेमस्वरूपा भक्तिः ।" प्रभु के प्रति प्रेम बढ़ने पर प्रभु में तन्मयता बढ़ेगी । हम सीधे ही तन्मयता के लिए प्रयत्न करते हैं, परन्तु उससे पूर्व के दो सोपानों को भूल जाते हैं । तन्मयता से पूर्व प्रेम और पवित्रता चाहिये । पहले प्रभु पर प्रेम करो ।। प्रेम होने के पश्चात् पवित्रता आयेगी । उसके बाद तन्मयता आयेगी । सीधे तन्मयता लेने जाओगे तो दुर्दशा होगी । छास लेने के लिए जाओगे और दोणी खो बैठोगे । 'लेने गई पूत, खो आई खसम' जैसी दशा होगी । जो मनुष्य तन्मयता पाने के लिए सांस के निरीक्षण में ही पड़ गये, वे उभयभ्रष्ट बन गये हैं । भगवान जहां न हों वैसी किसी साधना में पड़े ही नहीं । * भगवान का नाम, भगवान का आगम, भगवान का संघ, भगवान के सात क्षेत्रो में सर्वत्र भगवान देखो । * कुछ अंशो में कर्म हलके हुए हों तब ही भगवान प्रिय लगते हैं । उससे पूर्व भगवान की ऐसी बातें बकवास लगेगी । कोई श्रेष्ठ काल हो, कर्म हलके हुए हों, तब ऐसी बातें सुनते (कहे कलापूर्णसूरि - २00mmmmmmmmmmmmmmmmm ४८७)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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