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ऐसी ही दशा अपनी है ।
भगवान द्वारा बताई गई भाव - औषधि स्वीकार करने के लिए हम तैयार नहीं है, परन्तु विषय- तृष्णा बढाने वाले पदार्थ हमें चाहिये । इसी का नाम मिथ्यात्व है ।
* कल मैंने जिस योगी की कथा कही थी, माया के कारण उसे आगामी जन्म में स्त्री (राजकुमारी) बनना पड़ा और वह शिष्य हरि विक्रम राजा हुआ ।
यह दृष्टान्त यह बताता है ज्यों ज्यों आप साधना की ऊंचाई पर चढ़ते रहते हो, त्यों त्यों खतरा भी बढ़ता जाता है । लक्ष्य पूरा न हो तब तक कदापि पालथी लगा कर बैठना नहीं है । केवलज्ञान-मोक्ष न मिले तब तक लक्ष्य पूर्ण होनेवाला नहीं है ।
साधु-जीवन में कंचन - कामिनी का त्याग हो गया है, परन्तु कीर्त्ति ? समस्त लालसा कभी कीर्ति में एकत्रित हो जाती है । कंचन-कामिनी के त्यागी भी कीर्ति की लालसा का त्याग कर सकते नहीं हैं ।
प्रसिद्धि की अत्यन्त उत्कण्ठा जगे तो आत्मा को पूछें आत्मन् ! क्या तू गुणों से पूर्ण है ? क्या समस्त गुण तुझमें आ गये ? यदि गुण नहीं आये हों तो प्रसिद्धि का मोह कैसा ? आत्मप्रशंसा कैसी ? यदि तू समस्त गुणों से पूर्ण हो तो प्रसिद्धि का मोह क्यों ? क्योंकि गुणवान् को प्रसिद्धि का मोह होता ही नहीं है । प्रसिद्धि की लालसा ही स्वयं दोष है । यदि तू गुण-रहित हो तो आत्म-प्रशंसा की इच्छा रखने का अधिकार ही नहीं है । "गुणैर्यदि न पूर्णोऽसि कृतमात्मप्रशंसया । गुणैरेवासि पूर्णश्चेत्, कृतमात्मप्रशंसया ॥”
ज्ञानसार, १८-१
कहे कलापूर्णसूरि २
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