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पूज्यश्री के मामा माणकचंदजी
८-७-२०००, शनिवार आषाढ़ शुक्ला-७ : पालीताणा
मोक्ष चाहे इस समय न मिले, परन्तु मोक्ष का आनन्द इस समय भी मिल सकता है, जो साधनाजनित समता के द्वारा मिलता है ।
जीव को दुःख प्रिय नहीं लगता, फिर भी कदम-कदम पर दुःख सहन करना पडता है, क्योंकि इस संसार का स्थान ही ऐसा है, जहां दुःख मिलते ही है । काजल की कोठरी में रहना और काले नहीं बनना यह कैसे सम्भव हो ? संसार में रहना और दुःख नहीं पाना कैसे संभव होगा ?
दुःखमयता संसार का स्वभाव है उस प्रकार सुखमयता मुक्ति का स्वभाव है ।
मुक्ति प्राप्त करने के लिए मैं साधना करता हूं । प्रतिपल ऐसी प्रतीति होनी चाहिये । यदि ऐसी प्रतीति होती रहे तो मुक्ति समीप आये बिना नहीं रहेगी ।
बाह्य दु:ख जितना पीड़ित नहीं करता, जितना भीतर का दुःख पीड़ित करता है जो कर्म एवं कषाय के कारण उत्पन्न होता है । यह साधु-जीवन दुःखदायी कषायों का सामना करने के लिए (कहे कलापूर्णसूरि २ 000000000 ४७९