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ही है । दस प्रकार के यति धर्मों में प्रारम्भ के चार, चारो कषायों को जीतने के लिए ही हैं ।
ऐसा साधु - जीवन महा पुन्योदय से ही मिलता है, ऐसी प्रतीति आज भी होती है न ? कि अब महा पुन्योदय नहीं लगता ? जो वस्तु दैनिक बन जाती है उसका मूल्य नहीं लगता, अत: पूछता हूं ।
गुरु महाराज ने यदि अपना हाथ नहीं पकड़ा होता तो अपनी क्या दशा होती ?
हम दुःखमय संसार में कहीं भटकते होते । विषय- कषायों को उकान तो संसार में है ही, परन्तु बाह्य दुःख भी कम नहीं है ।
यहां नित्य दुःखी मनुष्यों की कतार बढती है । किसी के बच्चे पागल होते हैं, किसी का पुत्र भाग गया होता है, किसी की पत्नी झगडालू होती है तो किसी का पति मार-पीट करता होता है ।
ऐसे दुःखमय संसार से हम उगर गये, उसमें क्या गुरुदेव का उपकार प्रतीत होता है ? प्रत्यक्ष गुरु महाराज का उपकार स्वीकार न करे वह भगवान का परोक्ष उपकार किस प्रकार स्वीकार कर सकेगा ?
नमक के प्रत्येक कण में कड़वाहट है, उस प्रकार संसार की प्रत्येक घटना में दुःख है ।
शक्कर के प्रत्येक कण में मिठाश ( मधुरता ) है, उसप्रकार मुक्ति की प्रत्येक साधना में सुख है । मुक्ति में तो सुख है ही, परन्तु मुक्ति की साधना में भी सुख है, क्या यह आपकी समझ में आता है ? हमारा कष्ट यह है कि मोक्ष में सुख प्रतीत होता है, परन्तु मोक्ष की साधना स्वयं सुख रूप है यह समज में नही आता । साधना में यदि सुख प्रतीत हो तो उसमें कदापि पीछे न रहें ।
ऐसे दुःखमय संसार - सागर में से बाहर निकालकर गुरुदेव ने हमें दीक्षा के जहाज में बिठा दिये, क्या यह याद आता है ? यह तो द्रव्य दीक्षा हुई, यह कहकर बात निकाल मत देना । कहे कलापूर्णसूरि - २
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