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________________ एक जीव मोक्ष में जाये अर्थात् उसने जगत् के समस्त जीवों को अभयदान दिया, अपनी ओर से होने वाली पीड़ा सदा के लिए बंध की । क्या वह कम बात है ? __इसी अपेक्षा से साधु उत्कृष्ट दानी है । "गृहस्थ जीवन में थे तब दान आदि धर्म कर सकते थे । अब दान आदि कुछ भी नहीं हो सकता ।" यह सोच कर दुःखी होने की या निराश होने की आवश्यकता नहीं है । यहां आप अभयदान दे सकते हो जो कोई गृहस्थ नहीं दे सकता । * अपार्थिव आनन्द आत्मा का स्वभाव है । सम्यग्दर्शन आते ही उस आनन्द की झलक मिलनी प्रारम्भ हो जाती है । साधना में ज्यों ज्यों आगे बढ़ते जायें, त्यों त्यों आनन्द बढ़ता जाता है । सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा देशविरति में अधिक आनन्द है । साधुता में उससे भी अधिक आनन्द है, क्षपकश्रेणि में उससे अधिक आनन्द है, केवलज्ञान में उससे अधिक आनन्द है और उससे भी मोक्ष में अधिक आनन्द है । सम्यग्दर्शन से प्रारम्भ होने वाला आनन्द मोक्ष में पराकाष्ठा पर पहुंचता है। मोक्ष अर्थात् आनन्द का पिण्ड ! मोक्ष अर्थात् आनन्द का उच्च शिखर ! मोक्ष अर्थात् आनन्द का धूम मचाता महासागर । आनन्द के बिन्दु से प्रारम्भ हो चुकी यात्रा आनन्द के सिन्धु में पर्यवसित हो जाती है। * प्रवर्तक एवं प्रदर्शक ये दो ज्ञान हैं । प्रवर्तक ज्ञान, साधना में सहायक है। प्रदर्शक ज्ञान साधना में बाधक है, अभिमानवर्धक है । जिस ज्ञान से अभिमान नष्ट होता है, उससे ही यदि अभिमान बढ़े तो हद हो गई । यदि सूर्य से ही अंधकार फैले तो जाना कहां ? मणबंध भी प्रदर्शक ज्ञान मोक्ष में नहीं ले जाता । प्रवर्तक ज्ञान का छोटा सा कण भी माषतुष मुनि की तरह आपका मोक्ष का द्वार खोल देगा । [४७८08omooooooomnoon0000 कहे कलापूर्णसूरि - २)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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