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स्वार्थ-वृत्ति मिथ्यात्व है। परमार्थवृत्ति समकित है।
समकित का अर्थ है - स्व-पर जीव को जीव के रूप में स्वीकार करना, उसके प्रति श्रद्धा करना । ऐसा श्रद्धालू दूसरों के दुःख-दर्द के समय निष्क्रिय कैसे रह सकता है ?
चार प्रकार के धर्मों में प्रथम दान धर्म है, जो परोपकार का महत्त्व बताता है । अनुग्रहार्थ स्वस्याऽतिसर्गो दानम् ।
__ - तत्त्वार्थ ७-३३ जब परोपकार का भाव चरम सीमा पर पहुंचता है तब सर्वविरति उदय में आती है, सर्वविरति की लालसा जगती है ।
एक दिन के मेरे भोजन के लिए असंख्य जीव बलिदान देते हैं । इस प्रकार प्रत्येक भव में हमने समस्त जीवों का ऋण लिया है। अब यह ऋण तब ही उतरेगा, यदि संयम ग्रहण करके उन समस्त जीवों को अभयदान दिया जाये ।
मैं गृहस्थ-जीवन में था । जीवविचार का अध्ययन करने के पश्चात् सब्जी लाने - समारने में त्रास होता - 'अरेरे ! क्या इन जीवों का मैं इस प्रकार संहार करूं? क्या यह जीवन इसके लिए है ? यह संहार न हो ऐसा एकमात्र संयम जीवन है । परिवार में कुछ मनुष्यों का विरोध होने पर भी मैं संयम-जीवन ग्रहण करने के लिए अडिग रहा । संयम जीवन के बिना सम्पूर्ण साधना सम्भव नही हो सकती, ऐसी मेरी श्रद्धा दृढ हो गई थी।
* चार केवली हैं - सर्वज्ञ, श्रुत केवली, सम्यग्दृष्टि एवं श्रद्धापूर्वक कन्दमूल आदि का त्यागी ।
कन्दमूल जीव है । उसे तर्क से सिद्ध नहीं किया जा सकता । यह बात तर्कगम्य नहीं है, केवल श्रद्धागम्य है । प्रभु पर श्रद्धा रख कर कन्दमूल का परित्याग करनेवाला भी अपेक्षा से केवली कहलाता है ।
* एक जीव को समकिती बना लो तो चौदह राज लोक में अमारि का डंका बजाया कहलायेगा । ऐसा क्यों कहा गया ? क्योंकि वह जीव अब अपार्ध पुद्गल परावर्त में मोक्ष में जायेगा । कहे कलापूर्णसूरि -
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