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नागेश्वर के छ'री पालक संघ में इसकी वाचना भी रखी गई थी।
इसमें मुख्यतः विनय का वर्णन है ।
* त्रिपदी के श्रवण मात्र से गणधरों में द्वादशांगी की रचना करने की शक्ति कहां से उत्पन्न हुई ? भगवान का परम विनय करने से । उन्होंने भगवान को मनुष्य के रूप में न देखकर, भगवान के रूप में देखा ।
* भद्रबाहु स्वामी जैसों का कथन है कि कहां तीर्थंकरो और गणधरों का विशाल ज्ञान ? कहां मैं ? उनके सूत्रों में संशोधन करने का अभिलाषी मैं कौन ?
भद्रबाहु स्वामी को ऐसा लगता है, जबकि हमें लगता है कि मैं गुरु से भी अधिक ज्ञानी हूं।
* यह ग्रन्थ कण्ठस्थ करने योग्य है । इसे प्रारम्भ करने से पूर्व तीन आयंबिल करने पड़ते है । इसके भी जोग होते हैं ।
* यह ग्रन्थ समझाता है - ज्ञान सीखने की वस्तु नहीं है, विनय सीखने की वस्तु है । हम विनय के द्वारा ज्ञान सीखना चाहते हैं, परन्तु ग्रन्थकार कहते हैं - विनय केवल साधन नहीं है, स्वयं साध्य भी है ।
भगवान का विनय, भगवान की भक्ति आदि आ जायेंगे तो ध्यान आदि स्वतः ही आ जायेंगे । ध्यान के लिए भिन्न पुरुषार्थ करने की आवश्यकता नहीं पडेगी ।
* यह ग्रन्थ मोक्षमार्ग का सूत्र है, महा अर्थ है, महान् अर्थ युक्त है । अतः ध्यान पूर्वक सुनें ।
दस कि.ग्रा. दूध में से एक कि.ग्रा. घी निकलता है । घी दूध का सार है, उस प्रकार यह ग्रन्थ सारभूत है ।
* कल भगवती में पढने में आया - 'मोक्षमार्ग के पथिक की गति रोकने वाले १८ पापस्थानक हैं । इसीलिए संथारा पोरसी में 'मुक्खमग्ग - संसग्ग विग्घ भूआई' विशेषण लगाया गया है ।
एक शब्द में कहना हो तो 'प्रमाद' । एक 'प्रमाद' में अढार पाप स्थानक आ गये हैं ।
* मोक्ष मार्ग के मुख्य प्रेरक गुरु हैं । सर्व प्रथम उनका विनय करना है।
कहे कलापूर्णसूरि - २wooooooooooooooo000 २९)