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________________ वेधकता वेधक लहे मनमोहनजी, बीजा बैठा वा खाय..." ध्यान-दशा में समाधि की झलक की अनुभूति के बिना ऐसी कृति संभव नहीं थी । ग्रन्थ अर्थात् ग्रन्थकार का हृदय । ग्रन्थ मिला अर्थात् उन महात्मा का संग मिला । ग्रन्थ के माध्यम से आज भी हम हरिभद्रसूरि, उपा. यशोविजयजी आदि महापुरुषों का संग कर सकते हैं । * व्यापारी व्यापार की सिर-पच्ची करे, परन्तु सायं लाभ प्राप्त करे । क्या हमें ध्यान अथवा समता का लाभ मिलता है ? क्या हमारी क्रियाएँ अंधेरे में किये गये गोलीबार जैसी नहीं हैं ? कोई भी एक योग ऐसा पकड़ लो जो आपको समाधि तक ले जाये । याद रहे, प्रत्येक जिनोक्त अनुष्ठान में यह शक्ति है । शक्कर के प्रत्येक दाने में मधुरता है, उस प्रकार प्रत्येक जिन-वचन में समाधि का माधुर्य है । ___ "सूत्र अक्षर परावर्तना, सरल शेलडी दाखी; तास रस अनुभव चाखिये, जिहां छे एक साखी ।" - उपा. यशोविजयजी म.सा. कल्पना के चम्मच से शास्त्रों के दूधपाक का स्वाद नहीं मिलता । उसके लिए अनुभव की जीभ ही चाहिये । केवल पठन-पाठन से तृप्त न बनें । ठेठ अनुभव तक पहुंचने की तमन्ना रखें । आपको यह भी ध्यान रहे कि विहित अनुष्ठान छोड़कर आप अनुभव तक नहीं पहुंच सकोंगे । अनेक व्यक्ति अनुभव प्राप्ति की धुन में प्रतिक्रमण आदि अनुष्ठान छोड़ देते हैं । यह अत्यन्त ही खतरनाक कदम है। देखो, उपा. यशोविजयजी म. कहते है - "उचित व्यवहार अवलंबने, एम करी स्थिर परिणाम रे; भावीए शुद्ध नय भावना, पावनासय तणुं ठाम रे..." पहले उचित व्यवहार, बाद में ही निश्चय, अन्यथा राजचन्द्र (४६० Wwwwwwwwwwwsa s कहे कलापूर्णसूरि - २)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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