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________________ अमुक गुण चिन्हों के रूप में दिखाई देते हैं । जैसे नयसार को समकित मिलने वाला था, उससे पूर्व अतिथि को भोजन कराके भोजन करने का मन हुआ । हाथी मेघकुमार बनने वाला था, उससे पूर्व शशक को बचाने की उसकी इच्छा हुई । * मोक्ष की रुचि हुई है ऐसा कब माना जाता है ? जब मोक्ष के उपायों के प्रति रूचि जागृत हो तब । केवल शाब्दिक रूचि नहीं चलती, हार्दिक रूचि चाहिये । यहां जीवन्मुक्ति मिले उसे ही भवान्तर में सिद्धशिला की मुक्ति मिलती है। भगवान द्वारा प्रदत्त इस चारित्र में जीवनमुक्ति प्रदान करने का सामर्थ्य है ।। * भगवान के तत्त्वों के प्रति श्रद्धा, सर्वत्र औचित्य, सब के प्रति मैत्री यह अध्यात्मयोग है । उसके बाद भावना, ध्यान, समता एवं अन्त में वृत्ति-संक्षेप रूप योग आता है । चारित्रवान् में ये पांचो योग अवश्य होते ही हैं । * गृहस्थों की शय्या अर्थात् निद्रा । साधु का संथारा अर्थात् समाधि । योगी को नींद में भी समाधि होती है, यह समझना रहा । समाधि ध्यान के बिना नहीं आती । पूर्वकाल में अपने मुनि ध्यान के प्रयोग करते रहते थे । ध्यानविचार के २४ ध्यान के भेद पढ़ने से यह ज्ञात होता है । यह ध्यान दो प्रकार से होता है - भवन एवं करण के द्वारा । सम्यग्दर्शन भी दो प्रकार से मिलता है - निसर्ग एवं अधिगम से । भवन (निसर्ग) अर्थात् सहज ही । करण (अधिगम) अर्थात् देशना-श्रवण आदि के पुरुषार्थ से । यह लक्ष्य हम चूक गये, अतः ध्यान हमें अजनबी वस्तु प्रतीत होती है। अत्यन्त निकट काल में हो चुके पं. वीरविजयजी, चिदानंदजी आदि की कृतियां पढ़ोंगे तो ध्यान-समाधि आदि की झलक देखने को मिलेगी । देखो, पं. वीरविजयजी म. गाते हैं - "रंग रसिया रंग-रस बन्यो मनमोहनजी, कोई आगल नवि कहेवाय; (कहे कलापूर्णसूरि - २wooooooooooooooooo ४५९)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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