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के अथवा कानजीभाई के भक्तों जैसी दशा होती है। चाहे जितना अनुभवी योगी भी गुरु-सेवा आदि का त्याग नहीं करता । पूज्य हेमचन्द्रचार्य कृत योगशास्त्र का बारहवां प्रकाश पढेंगे तो गुरुकृपा का महत्त्व समझ में आयेगा ।
निश्चय आने पर व्यवहार छोड़ देने की भूल अनेक व्यक्ति करते होते हैं । यह अत्यन्त फिसलने का मार्ग हैं। इसीलिए उपाध्याय यशोविजयजी महाराज ने स्थान-स्थान पर उसके सामने लालबत्ती धर कर अपनी उत्कृष्ट गीतार्थता सिद्ध की है ।
* सीरे के लिए परिश्रम करती है मां, फिर भी बालक भी मां के समान ही सीरे का स्वाद ले सकता है, तनिक भी अन्तर नहीं ।
महापुरुष श्रम करके हमें सारभूत तत्त्वज्ञान प्रदान करते हैं । हमें बिना प्रयत्न के वह प्राप्त होता है ।
ऋषभदेव ने हजार वर्षों तक श्रम करके जो केवलज्ञान प्राप्त किया, वह केवलज्ञान मरुदेवी ने कुछ ही क्षणों में प्राप्त कर लिया ।
* आजकल भगवती में जमालि का अधिकार चलता है । जमालि को लगता है 'कडेमाणे कडे' भगवान की यह बात बराबर नहीं है ।'कडे कडे' ही बराबर है ।
इसमें उसे इतना अभिमान आ जाता हैं कि ऐसा चिन्तन करने वाला मैं ही जगत् में प्रथम हूं ।
वह स्वयं को सर्वज्ञ मानने लगता है। भगवान के समक्ष भी वह स्वयं को 'सर्वज्ञ' घोषित करता है ।
यह है मिथ्यात्व ! ऐसे मिथ्यात्व के कारण ही हम हार चुके होंगे । कितनी ही बार हमें 'महावीर' मिले होंगे, परन्तु हम 'जमालि' बने होंगे । कदाचित् 'जमालि' भी नहीं । जमालि का तो १५ भवों में ठिकाना पड़ जायेगा । अपना कहां पड़ा हैं ?
अपनी साधना में अभिमान आदि सब बड़े भय-स्थान हैं । किसी स्थान पर साधक डूब न जाये, फंस न जाये, उस की सावधानी पूर्वक 'ज्ञानसार' की रचना हुई है । साधक कहीं भी मध्यस्थता नहीं खोये, कहीं आत्म-प्रशंसा में न सरके, कदापि कर्म के भरोसे न रहे । उसके लिए एक-एक अष्टक की रचना हुई है । कहे कलापूर्णसूरि - २66555wwwwwwwwwwws ४६१)