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________________ भक्तामर में लिखा है - "त्वामव्ययं ।" इन विशेषणों से भगवान की शक्ति व्यक्त हुई है । सत्य बात यह है कि भगवान् अपना सच्चा स्वरूप भक्त को ही बताते है । दूसरे बैठे हवा खाते हैं । "वेधकता वेधक लहे, बीजा बैठा वा खाय ।" - पं. वीरविजयजी म.सा. * तांबे या स्वर्ण पर स्वर्ण सिद्धि का रस गिरने पर स्वर्ण बन जाता है, ऐसा कहा जाता है। भगवान की भक्ति का रस अपने हृदय में जाये तो अपनी पामर आत्मा परम बन जाती है। भगवान के गुणों के प्रति प्रेम ही वेधक-रस समझें । जिसमें इतना भक्ति-रस उत्पन्न हुआ हो वह अवश्य ही भगवत्ता प्राप्त करेगा । * योगदृष्टि समुच्चय में कहा है - गुरु-भक्ति प्रभावेन, तीर्थकृद्दर्शनं मतम् । समापत्यादि भेदेन, निर्वाणैक निबन्धनम् ॥ गुरुभक्ति के प्रभाव से समापत्ति आदि से मोक्ष का एक कारण तीर्थंकर प्रभु का दर्शन होता है । इसी बात को पंचसूत्र में इस प्रकार कही गई है - "गरु-बहमाणो मोक्खो ।" समापत्ति अर्थात् प्रभु के साथ सम्पूर्ण रूप से तन्मय हो जाना । गुरु-भक्ति के बिना समापत्ति नहीं आती । परोक्ष रहे भगवान को प्रत्यक्ष रूप से बताने वाले गुरु है। ध्यानस्थ दशा में शिष्य को भगवान के दर्शन होते हैं । अर्थात् ध्यान के द्वारा वह प्रभु के गुणों का स्पर्श करता है । ऐसे पदार्थ हमारे समक्ष पड़े हों फिर भी उनमें हमारा चित्त नहीं लगता, अन्यत्र सब जगह फैला हुआ है, यह हमारी करुणता * "एगो मे सासओ अप्पा ।" यह शुद्ध निश्चय नय का ज्ञान मोह की मूल काटता है । ऐसी भावना से अपना आत्मत्व जाग उठता है । बकरी की तरह 'बें-बें' करने वाला सिंह अब (कहे कलापूर्णसूरि - २wwwwwwwwwwwwwwwww00 ४५५)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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