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गर्ज उठता है, उसे होता है कि मैं अर्थात् परम, पामर नहीं । मैं अर्थात् सिंह, बकरी नहीं ।
ऐसी गर्जना सुनते ही सर्व प्रथम ग्वाला (मोह) भागता है। फिर बकरियां (अन्य कर्म प्रकृतियां) भी भाग जाती हैं ।
आत्मा जगती है, मोह भागता है - केवल एक गर्जना की आवश्यकता है ।
भक्ति में लीन बने बिना सिंहत्व याद नहीं आता । यह सब कहना - बोलना - लिखना - सुनना सरल है, परन्तु उसे भावित बनाना अत्यन्त ही कठिन है । इसीलिए मैं सदा ज्ञान को भावित बनाने पर बल देता हूं।
* साधना का प्रारम्भ छः आवश्यकों से होता है ।
जीवन के आवश्यकता की मुख्य तीन वस्तु हैं - हवा, पानी और भोजन । आध्यात्मिक जीवन की मुख्य छ: वस्तुएं हैं -
सामायिक, चउविसत्थो, वांदने, प्रतिक्रमण, काउस्सग्ग और पच्चक्खाण ।
हमने प्रतिक्रमण किया, जिससे मान लिया कि छ: आवश्यक हो गये । वास्तव में ऐसा नहीं है, हमारे चौबीसों घंटे छः आवश्यकमय होने चाहिये । प्रतिक्रमण तो केवल उसका प्रतीक है ।
प्रथम आवश्यक सामायिक । सामायिक अर्थात् समता ।
समस्त जीवों पर समत्व एवं समस्त पदार्थों (निन्दा अथवा स्तुति, पत्थर या स्वर्ण) पर समान भाव रखे बिना सामायिक प्रकट नहीं होती ।
* दोष बताने वाले पर अप्रसन्न न हों, प्रसन्न हों । निन्दक तो उपकारी है, जो बिना पैसे आपका मैल धो डालता है। धोबी तो पैसे लेता है । आपकी प्रशंसा करनेवाला तो आपके शुभ कर्मों का नाश करता है, परन्तु निन्दक तो अशुभ कर्मों का नाश करता है । दोनो में अधिक उपकारी कौन है ?
निन्दा-स्तुति में समान भाव आये बिना सामायिक नहीं आती ।
दूसरा आवश्यक है चउविसत्थो । [४५६ mms commawwwsssssssss कहे कलापूर्णसूरि - २)