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________________ त्याग करना है । * आश्रव से दूर हो जाओ । संवर में स्थिर बनो । यही एकमात्र प्रभु की मुख्य आज्ञा है । सम्यग् दर्शन आते ही विचारों में एकदम स्पष्टता आ जाती है और कोई भी कार्य करने से पूर्व वह सोचता है यह मेरे भगवान की आज्ञा है ? मैं आज्ञा में हूं या आज्ञा से बाहर हूं ? इतना ही विचार आपको अनेक अकार्यों से रोक देगा । शरणागति, दुष्कृत-गर्हा, सुकृत- अनुमोदना-आराधना के ये तीन सोपान मोह हटाने के लिए श्रेष्ठ उपाय हैं । " शरीर ये मैं, शरीर के साथ जुड़े हुए मकान, दुकान, परिवार आदि मेरे " ऐसी वृत्ति मोह की ओर से मिला हुआ 'लाग' है । उसे तोड़ने के लिए उससे विपरीत भावना चाहिये । मैं अर्थात् आत्मा । मेरा अर्थात् ज्ञान आदि गुण । मोह को जीतने का यह प्रतिमंत्र है । अब तक सदा मोह जीतता रहा है । हम हारते रहे हैं । अब मोह को हराना है । - * कल प्रश्न था "महाराज ! कल अभिषेकों का 1 44 कार्यक्रम रखा है । वर्षा होती रही तो गिरिराज पर कैसे जा सकेंगे ?" मैंने कहा, 'भगवान की इच्छा होगी वैसे होगा। आज आपने देखा न ? प्रातः तीन बजे तक वर्षा चालु थी, परन्तु उसके बाद बंद हो गई । ऊपर आराम से जा सके और नीचे भी आ गये । तब तक एक बूंद भी नहीं गिरी, बाद में पुनः वर्षा शुरु हो गई । भगवान अपनी इतनी संभाल लेते हों तो हमें चिन्ता करने की क्या आवश्यकता ? - "सात महाभय टालतो, सप्तम जिनवर देव" हम भगवान के लिए यह मान बैठे कि भगवान मोक्ष में गये अतः समाप्त । निष्क्रिय बन गये, परन्तु उनकी परोपकारता, उनकी करुणा अब भी कार्य करती है । इस बात पर कदापि विचार करते ही नहीं हैं । ४५४ 5 कहे कलापूर्णसूरि
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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