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भोजने कहा था - इसमें अयोध्या के स्थान पर धारा, आदिनाथके स्थान पर शंकर और भरत के स्थान पर भोज - इतना परिवर्तन करें ।
धनपाल के स्वीकार नहीं करने पर राजा ने पुस्तक को भस्मीभूत की । कवि-पुत्री तिलकमंजरी की स्मरण-शक्ति से उक्त ग्रन्थ पुनर्जीवित हुआ । पुत्री के नाम से ही उक्त ग्रन्थ का नाम 'तिलक मंजरी' पड़ा ।
हमारे 'ध्यान-विचार' ग्रन्थ का भी ऐसा ही हुआ था । वि. संवत् २०३८ में उज्जैन में प्रेसवाले ने हस्तप्रत खो दी ।
मुझे लगा - होगा, भगवान की वैसी इच्छा होगी । उसमें भी कोई शुभ संकेत होंगे । पुस्तक जैसी लिखी जानी चाहिये, वैसी नहीं लिखी गई होगी ।
हमने पुनः लिखना प्रारम्भ किया ।
पहले से भी सुन्दर ढंग से लिखी जाकर, 'ध्यान-विचार' के नाम से प्रकाशित हुई ।
पुस्तक भले उपाय है, परन्तु सब पुस्तक के भरोसे नहीं रहना चाहिये । * मोक्ष में तो जाना है, परन्तु अभी नहीं ।
दीक्षा तो ग्रहण करनी है, परन्तु अभी नहीं । अधिकतर लोगों की मानसिकता ऐसी होती है । उनके ऐसे विचारों में ही सम्पूर्ण जीवन पूरा हो जाता है ।
शुभ विचारो को कदापि स्थगित न रखें, अशुभ विचारों को सदा स्थगित रखें ।
* इस समय पैंतालीस आगमों में से एक 'चंदाविज्झय' ग्रन्थ वाचना में चलता है । इस ग्रन्थ में मुक्ति-प्राप्ति के श्रेष्ठ उपाय बताये गये हैं। अभी समाधि-मरण का विषय चलता है ।
मृत्यु, समाधि-मृत्यु कब बनती है ? जब अपना हृदय निःशल्य बने, अठारह पाप-स्थानकों से मुक्त बने । अठारहों पाप मोक्ष-मार्ग के संसर्ग के विघ्नभूत कहे गये हैं - 'मुक्खमग्गसंसग्गविग्घभूआई ।'
यह दूर किये बिना अपना मार्ग कदापि मुक्तिगामी नहीं बन सकता । अठारहों पाप प्रायः मोहनीय कर्म-जन्य हैं । मोह का (कहे कलापूर्णसूरि - २WWooooooooooooooom ४५३)