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यों तो यह आनन्द अपार्थिव है, भौतिकता से परे है, फिर भी सब मनुष्य समझ सकें, अतः भगवान ने साधु के प्रारम्भ के एक वर्ष के सुख की देवलोक के सुख के साथ तुलना की है। फिर तो साधु का सुख इतना बढ़ जाता है कि अनुत्तर देवों का सुख भी कहीं पीछे रह जाता है ।
* ज्यों ज्यों लेश्याएं विशुद्ध होती जाती है, त्यों त्यों जीवन में मधुरता (बहुत से साधक कहते हैं "मुझे आज मीठाश का अनुभव हुआ, ये मीठाश लेश्या के पुद्गल से जनित समझना, उत्तराध्ययन में जगत के उत्तम मधुर पदार्थों जैसी मधुरता लेश्याओं की कही है) बढ़ती जाती है । ज्यों ज्यों लेश्याएँ अशुद्ध बनती हैं, त्यों त्यों जीवन में कटुता बढ़ती जाती है ।
ऐसे निरन्तर बढ़ते परिणाम वाले साधुओं से ही यह जगत् टिका हुआ है। अपने जंबूद्वीप से दुगुना बड़ा लवण समुद्र जंबूद्वीप को डुबाता नहीं है, यह ऐसे साधुओं का प्रभाव है ।।
भगवान तो जगत् के नाथ हैं ही, परन्तु उनके ऐसे उच्च साधु भी जगत् के नाथ बनते हैं, क्योंकि परमात्मा की झलक उनकी आत्मा में उतरी है, प्रभु का प्रभाव उनमें उतरा है ।
ऐसे मुनियों को 'करुणासिन्धु' कहा है। आप गृहस्थ लोग दीन-दुःखियों को देख कर पैसों आदि द्रव्य पदार्थों का दान करते हो, परन्तु साधु किस वस्तु का दान करते हैं ।
अप्रमत्त गुणस्थानक में रहे साधु मात्र प्रभु के ध्यान में बैठे हों तो भी जगत् का उत्कृष्ट कल्याण होता ही रहता है । इसके लिए न तो वासक्षेप की आवश्यकता होती है, न आशीर्वाद की आवश्यकता होती है ।
* साधु जगत् का कल्याण करते हैं, उसमें भी भगवान का ही प्रभाव कार्य कर रहा है । अरिहंत के ध्यान में रहने वाला ही साधु कहलाता है। ऐसे साधु, उपाध्याय या आचार्य को किया गया नमस्कार भी समस्त पापों का नाशक होता है । नवकार में लिखा है -
___ "एसो पंच नमुक्कारो । सव्व पावप्पणासणो ।" इन पांचों का नमस्कार सभी पापों का नाश करने वाला है।
[४४६0mmomaamanmannaoooon कहे कलापूर्णसूरि - २)