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चम्पक और मैं
हम तीनों दीक्षा अंगीकार करने के लिए तैयार थे । ज्येष्ठ भ्राता द्वारा मेरा चयन किया और मैं मुंबई से आधोई आ पहुंचा । इस प्रकार ज्येष्ठ भ्राता ने मुझे अध्यात्मयोगी पूज्य गुरुदेव के साथ जोड दिया ।
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पूज्यश्री ने हमें शास्त्रों के साथ जोड़ने के निरन्तर प्रयत्न किये । पूज्य श्री परमात्मा के परम भक्त हैं । वे भक्ति के पर्याय के रूप में सर्वत्र प्रसिद्ध हैं । 'कलापूर्णसूरि अर्थात् भक्ति और भक्ति अर्थात् कलापूर्णसूरि ।' इस प्रकार लोगों की जबान पर गाया जा रहा है । पूज्यश्री की भक्ति तो सर्वत्र प्रसिद्ध ही है, परन्तु आज मैं उनके अप्रकट गुण के सम्बन्ध में भी कहूंगा । उनका शास्त्र - प्रेम अद्वितीय है । पूज्य श्री जितने प्रभु प्रेमी हैं, उतने ही शास्त्र प्रेमी हैं, यह बात अत्यन्त कम लोगों को ज्ञात है ।
पूज्यश्री ने हमें पढ़ाने के लिए निरन्तर ध्यान रखा, चिन्ता रखी । दीक्षा ग्रहण करने के समय मैं अत्यन्त ही छोटा था । केवल साढ़े बारह वर्ष की मेरी उम्र थी । उस समय हमें शिक्षित करने में पूज्यश्री ने जो सावधानी रखी, वह कदापि भुलाई नहीं जा सकती । लाकडिया के प्रथम चातुर्मास में श्री चम्पकभाई को, मनफरा के द्वितीय चातुर्मास में पण्डितवर्यश्री अमूलखभाई को अंजार के तीसरे चातुर्मास में रसिकभाई को तथा जयपुर के चौथे चातुर्मास में वैयाकरण - पण्डित श्री चण्डीप्रसाद को नियुक्त कर दिया । श्रुतस्थविर पूज्य मुनिश्री जम्बूविजयजी के पास धामा, आदरीयाणा, शंखेश्वर आदि स्थानों पर आगम-वाचना का प्रबन्ध कर दिया। षोड़शक, पंचवस्तुक आदि पूज्य हरिभद्रसूरिजी के ग्रन्थ, प्रतिमाशतक, अध्यात्मसार आदि पूज्य उपाध्याय श्री यशोविजयजी के ग्रन्थों की वाचना पूज्यश्री ने दी । आज इतनी उम्र में भी पूज्य श्री हमें भगवती की वाचना दे ही रहे हैं ।
भगवती के योगोद्वहन के प्रवेश की पूर्व संध्या पर हम पूज्य श्री के आशीर्वाद लेने गये तब पूज्य श्री ने कहा, "भगवती के जोग में प्रवेश करने के प्रसंग पर मैं तुम्हें गुण प्राप्त करने की बात कहता हूं । तुम लोग ज्ञान, वैराग्य, भक्ति आदि गुणों को प्राप्त करना और प्राप्त गुणों को अधिकाधिक निर्मल बनाना ।"
२६ Wwwwwwwwww कहे कलापूर्णसूरि