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________________ अन्त में प्रभु को प्रार्थना है कि, हे प्रभु ! हम पदस्थ बनें या न बनें, परन्तु हमें गुणस्थ बना कर आत्मस्थ अवश्य बनाना । नूतन गणिश्री मुनिचन्द्रविजयजी चरम तीर्थपति वर्तमान शासन-नायक भगवान श्री महावीर स्वामी के चरणों में वन्दना । भगवान श्री महावीर स्वामी के ७७ वे पाट पर बिराजमान, परम श्रद्धेय, सच्चिदानन्द-स्वरूप, अध्यात्मयोगी पूज्य आचार्यश्री के चरणों में वन्दना । मधुरभाषी, नूतन आचार्यश्री के चरणों में वन्दना । विद्यादाता नूतन पंन्यास प्रवरश्री कल्पतरुविजयजी महाराज के चरणों में वन्दना । मेरी जीवन-नैया के परम खेवनहार गणिवर्य पूज्यश्री मुक्तिचन्द्रविजयजी महाराज के चरणों में वन्दना । सूर्य की दृष्टि पड़ते ही सामान्य प्रतीत होने वाला जल-बिन्दु मोती बन कर चमकने लगता है। कुम्हार की दृष्टि पड़ते ही सामान्य प्रतीत होती मिट्टी कुम्भ बन कर शीर पर चढती है । शिल्पी की दृष्टि पड़ते ही सामान्य प्रतीत होने वाला पत्थर प्रतिमा बन कर मन्दिर में प्रतिष्ठित होता है और गुरु की दृष्टि पडते ही सामान्य प्रतीत होने वाला शिष्य असामान्य बन जाता है। अन्यथा 'मनफरा' जैसे छोटे से गांव के कृषक परिवार में उत्पन्न हुए मेरे लिए श्रावकत्व भी दुर्लभ था, वहां मुनित्व की और उसमें भी कोई पद-प्राप्ति की तो बात ही क्या कही जाये ? पूज्यश्री के मुख से अनेक बार सुना है कि माता वह होती है जो सन्तान को पिता के साथ जोड़ दे । पिता वह कहलाता है जो सन्तान को गुरु के साथ जोड़ दे, गुरु वह कहलाता है जो शास्त्रों के साथ जोड़ दे, शास्त्र वे कहलाते हैं जो भगवान के साथ जोड़ दे और भगवान वे कहलाते हैं जो जगत् के समस्त जीवों के साथ जोड़ दे । मेरे परम सौभाग्य से मुझे ऐसी माता मिली । माता भमीबेन भले ही अनपढ़ थी, परन्तु संस्कारमूर्ति एवं भद्रमूर्ति थी । पिताजी की अनुपस्थिति में उन्होंने मुझे ज्येष्ठ भ्राता पूज्य मुक्तिचन्द्रविजयजी को सौंपा । पूज्य मुक्तिचंद्रविजयजी की गृहस्थ जीवन में यह भावना थी कि तीनों लघु भ्राताओं में से कोई भी एक साथ चले । शान्तिलाल, (कहे कलापूर्णसूरि - २ 0000000000000000000 २५)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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