SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 453
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भुज, वि.सं. २०४३ २९-६-२०००, गुरुवार आषा. कृष्णा-१३ : पालीताणा * न ति सुज्झंति ससल्ला जह भणियं सव्वभावदंसीहि । मरणपुणब्भवरहिया, आलोयण निंदणा साहू ॥ १५५ ॥ * तीर्थ की सेवा किये बिना कोई मुक्ति नहीं पा सकता । 'तीरथ सेवे ते लहे आनंदघन अवतार...' हमारा मोक्ष नहीं हुआ, क्योंकि तीर्थ की आराधना नहीं की। तीर्थ मिला होगा, परन्तु हमने विराधना की होगी । "आज्ञाऽऽराद्धा विराद्धा च । शिवाय च भवाय च ॥" - वीतराग स्तोत्र * चौबीसो घंटे कोई आपका गुरु नहीं बन सकता । हमें ही अपना गुरु बनना पड़ता है । * भगवान की कृपा के बिना शुभ कार्य होते ही नहीं हैं । किसी भी शुभ कार्य में भगवान की कृपा चाहिये ही । कई बार मन में होता है - मैं ऐसा बोल गया ? मैंने इतना लिखा ? लिखने के लिए सोचा हुआ ग्रन्थ सचमुच क्या मैंने ही लिखा ? कैसे लिखा गया ? कैसे बोला गया ? परन्तु फिर कहे कलापूर्णसूरि - २000 wwwwwwwwwwws ४३३)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy