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________________ मैं आपको देता हूं। * भगवान की साधुओं के लिए आज्ञा है कि पांच प्रहर तक स्वाध्याय करें ।' स्वाध्याय तो साधुओं का प्राण है । इस के बिना कैसे चलेगा ? ज्ञान, दर्शन तो जीव के लक्षण हैं । इन्हें पुष्ट करने वाला यह साधु-जीवन है । ज्ञान छोड़ दें तो 'जीव' कैसे कहलायें ? सच्चे अर्थ में जीव बनना हो तो ज्ञान में वृद्धि करें । ज्ञान ही ऐसा लक्षण है जो आपको जड़ से भिन्न करता है । आत्मा के ज्ञान आदि छः लक्षणों में प्रथम लक्षण 'ज्ञान' है । * आपके मन में होता होगा - इतने सारे को क्यों एकत्रित किया ? क्या प्रयोजन है ? मैं सबको यहां देना चाहता हूं । प्राप्त किया हुआ दूसरों को देना ही विनियोग है। बाकी, जीवन का क्या भरोसा है ? यहां सुनी हुई बातें हवा में न उड़ जाये यह देखना । मेरा श्रम व्यर्थ न जाये इसका ध्यान आपको रखना है । मुझे जिस प्रकार अन्य-अन्य महात्माओं ने पक्षपात या भेदभाव के बिना दिया है, उस प्रकार आप भी अन्य को देते रहें । देने में कंजूसाई (कृपणता) न करें । जिसका विनियोग नहीं करोगे वह वस्तु आपके पास नहीं रहेगी । जोग में अनुज्ञा के खमासमण के समय यही बोलने में आता है, "सम्मं धारिज्जाहि, अन्नेसिं च पवज्जाहि, गुरुगुणेहिं वुड्विज्जाहि नित्थारपारगा होह ।" "इस सूत्र को सम्यग् धारण करें, दूसरों को दें, महान् गुणों से वृद्धि प्राप्त करें और संसार से पार उतरें ।" * भगवान के पास हम चैत्यवन्दन करते हैं । इन के सूत्र इतने गंभीर एवं रहस्यपूर्ण हैं कि जगत् की समस्त ध्यान-पद्धतियां एवं योग की बातें केवल चैत्यवन्दन के सूत्रों में आ जाती हैं । चैत्यवन्दन का महत्त्व समझानेवाला 'ललित विस्तरा' अद्भुत ग्रन्थ है । यदि यह ग्रन्थ नहीं मिला होता, उसका रहस्य समझाने वाले पू.पं. भद्रंकरविजयजी म. यदि नहीं मिले होते तो आज मेरी दशा कैसी होती ? यह कल्पना ही कंपा देने वाली है । (कहे कलापूर्णसूरि - २6600000 000000 ४३१)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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