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________________ माल परोस रहा हूं । भगवान जैसे देनेवाले हों तो मैं क्यों कंजूसाई करूं ? * निश्चय भीतर प्रकट होने वाली वस्तु है । व्यवहार बाहर प्रकट होने वाली वस्तु है । शुद्ध व्यवहार से भीतर का निश्चय व्यक्त होता है । कोई केवल निश्चय की बातें करें, परन्तु व्यवहार में कार्य के द्वारा कुछ भी प्रकट नहीं प्रतीत हो रहा हो तो वे बातें केवल बातें ही कही जायेंगी । * समकित देते समय द्रव्य सम्यक्त्व का आरोप करके दिया जाता है । यह समझ कर कि भविष्य में समकित प्राप्त कर गा । साहुकार को इसी विश्वास पर ही लोन दिया जाता है न ? अभी हीराभाई ने पूछा इतने ओघे किये तो भी ठिकाना नहीं पडने का कारण क्या है ? मैंने कहा कि सम्यग् दर्शन का स्पर्श नहीं हुआ, जिनभक्ति और जीव- मैत्री जीवन में नहीं आई । * सम्यग् दर्शन के आठों आचार दर्शनाचार हैं। उन आचारों का पालन करने से सम्यग्दर्शन की योग्यता प्रकट होती है । जो दर्शनाचार का पालन करने में कुशल होता है वह सम्यक्त्व प्राप्त करता है । स्वधर्मी की भक्ति करना, संघ का बहुमान करना, स्वधर्मी को स्थिर बनाना, मन को निःशंक बनाना आदि दर्शनाचार है । संघ भगवान का है । उसकी भक्ति से समकित के लिए पूर्व भूमिका तैयार न हो यह असम्भव है । सात बार चैत्यवन्दन क्यों करते हैं ? ये समकित लाने के उपाय हैं । भगवान के दर्शन किये बिना 'नवकारशी' क्यों नहीं की जा सकती ? इसका यही कारण है । आत्मा का दर्शन न हो तब तक प्रभु का दर्शन अपने लिए आत्मा का ही दर्शन है । प्रभु अर्थात् अपनी ही विशुद्ध बनी हुई आत्मा । प्रभु में अपने ही उज्जवल भविष्य को देखना है । उसके लिए दर्शन करने हैं । सम्यग्दर्शन की निर्मलता बढ़ेगी उतनी सम्यक् चारित्र की निर्मलता बढ़ेगी ही । कपड़े स्वच्छ प्रिय लगते हैं तो चारित्र भी स्वच्छ ही प्रिय लगना चाहिये न ? कपड़ों के दाग न लगे उसकी १८४७ कहे कलापूर्णसूरि - २ ४२०
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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