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छ: काय के जीवों के जीवन-मरण होते रहें तब तक अपने जन्म-मरण नहीं रूकेंगे ।
गृहस्थ जीवन में तो छ: काय की हत्या होती ही रहती है। जिन-दर्शन के अध्ययन से ज्ञात हुआ कि चारित्र के बिना मुक्ति नहीं है।
गृहस्थ जीवन में चौथा व्रत देने वाले पूज्य हिमांशुविजयजी महाराज (वर्तमान में आचार्य) मेरे प्रथम गुरु हैं ।
उन्हों ने मुझे उस समय प्रेरणा दी - 'अब क्या रहा है संसार में ? आ जाओ यहीं । वे भी मेरे उपकारी हैं। उपकारी का उपकार नहीं भुलाया जाता ।
* सम्यक्त्व या ज्ञान को या चारित्र को आप नमस्कार करते हैं, तब आप उनके धारकों को भी नमस्कार करते हैं, क्योंकि गुणी के बिना गुण कहीं भी रहते नहीं है । गुणों को नमस्कार अर्थात् गुणी को नमस्कार ।
सम्यक्त्व अर्थात् नौ तत्त्वों की रुचि ।
नौ तत्त्वों की रूचि अर्थात् क्या ? नौ तत्त्वों में प्रथम तत्त्व है - जीव । उस जीव को जानना अर्थात् क्या ? जीव का जैसा स्वरूप है वैसा स्वरूप अनुभव करने की रूचि जागृत हो तो ही आपने सच्चे अर्थ में जीव-तत्त्व जाना है, यह कहा जा सकता
जीव तत्त्व के प्रति ऐसी रुचि नहीं जगने से ही सम्यग दर्शन होता नहीं है ।
सम्यग् दर्शन आते ही अनादिकालीन भ्रम नष्ट हो जाते हैं ।
सम्यग् दर्शन आते ही व्यवहार से कुदेवों आदि का त्याग किया, परन्तु यह तो लौकिक समकित आया, परन्तु देह में आत्मबुद्धि दूर हो, आत्मा में आत्मबुद्धि जगे तो लोकोत्तर समकित प्राप्त हो ।
दिखाई देनेवाली देह मैं नहीं हूं, इन्द्रियों मैं नहीं हूं, ऐसी प्रतीति जिसके द्वारा हो वह समकित है । देह-इन्द्रिय 'मैं' नहीं हूं तो वह कौन है ? पुद्गल हैं । पुद्गल 'पर' हैं । 'पर' को अपने माने तो हो चुका । कर्म-बन्धन होगा ही । दूसरों की वस्तु पर अपने स्वामित्व का दावा करने जाओ तो व्यवहार में भी आप
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