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________________ करेंगे ही । वह रुचि, वह श्रद्धा तब ही प्रकट होती है यदि प्रभु के प्रति श्रद्धा उत्पन्न हो । प्रभु पर, प्रभु के वचनों पर श्रद्धा उत्पन्न हो तो आत्मा के आनन्द पर श्रद्धा उत्पन्न होगी । व्यापारी अपने पुत्रों को व्यापार की कला सिखाकर अपने समान बनाता है, गुरु अपने शिष्यों को अपने समान बनाने का प्रयत्न करे तो भगवान अपने भक्तों को अपने समान आनन्द क्यों न दे ? भगवान तो स्व-तुल्य पदवी-दाता है । __ आपने दीक्षा ग्रहण की तो प्रभु के पूर्णतः शरण में गये । सम्पूर्ण शरणागति स्वीकार की तो आपकी आत्मा का आनन्द बढ़ता ही गया, बढ़ता ही गया । बारह महिनों में तो आपका आनन्द इतना बढ़ जाता है कि अनुत्तर देवों का आनन्द भी पीछे रह जाये । भगवान की ओर से प्राप्त होने वाली यह आनन्द की प्रसादी है । साधु गोचरी जाते हैं, विहार-लोच आदि करते हैं, फिर भी आनन्द में तनिक भी हानि नहीं होती, यह प्रभु-मार्ग की बलिहारी है । यहां साधु-जीवन में आने के पश्चात् भी आत्मा के आनन्द की रूकावट के अनेक परिबल है - 'मैं विद्वान हूं, मेरे अनेक भक्त हैं, मेरे अनेक शिष्य हैं, मेरा समाज में नाम है ।' समाज में फैल जाने की ऐसी महत्त्वाकांक्षा साधना में रूकावट डालती है । साधना में रूकावट आने पर आत्मा के आनन्द में रूकावट आई ही समझें । * "जे उपाय बहुविधनी रचना, जोग माया ते जाणो रे शुद्ध द्रव्य-गुण-पर्याय ध्याने, शिव दिये प्रभु सपराणो रे ।" महोपाध्याय यशोविजयजी म. कहते हैं - 'अधिक लम्बीचौड़ी योग की जंजाल रहने दें । कहीं इसमें उलझ जाओगे । शुद्ध द्रव्य-गुण पर्याय के ध्यान से प्रभु का अभेद ध्यान करें । भगवान स्वतः ही आपको मोक्ष प्रदान करेंगे । अरे, आपके भीतर ही मोक्ष प्रकट होगा । * गृहस्थ जीवन में मेरा भी एक समय भ्रम था कि यहां ही ध्यान लग जाता है, फिर दीक्षा की क्या आवश्यकता है ? परन्तु जब जानने को मिला कि अपने निमित्त जब तक (कहे कलापूर्णसूरि - २00onomoooooomomsons ४१७)
SR No.032618
Book TitleKahe Kalapurnasuri Part 02 Hindi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMuktichandravijay, Munichandravijay
PublisherVanki Jain Tirth
Publication Year
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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